मंगलवार, 21 मई 2013

खुशनुमा एहसास  देता है वर्धा विश्‍वविद्यालय – सुधा अरोड़ा


हिंदी की नामचीन लेखिका सुधा अरोड़ा ने महात्मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय में एक चर्चा के दौरान कहा कि वर्धा, महाराष्ट्र से बेहतर कोई जगह हो नहीं सकती थी इस विश्‍वविद्यालय के लिए! किसी भी जनसंख्या बहुल महानगर में यह माहौल मिल पाना असंभव है। इतना खुला-खिला पर्यावरण, हरे-भरे पेड़, ऊंची-नीची ढ़लान लिए सड़कें, किसी हिल स्टेशन के खुशनुमा माहौल का ही  एहसास दिलाती हैं! बेहद कलात्मकता, सलीके और आत्मीयता से बनाए गए गांधी हिल, कबीर हिल पर भारत की पूरी सांस्कृतिक-साहित्यिक विरासत ताज़ा हो उठती है और हमें भावुक बनाने के साथ-साथ एक गर्व से भर देती है। सड़कों, संकुल और कार्यालयों के नामकरण भारत के गणमान्य रचनाकारों के नाम पर! कुल मिला कर ज्ञान के इस अपरिमित भण्डार में आना एक अनोखा सुख देता है! यहाँ के कुलपति विभूति नारायण राय और उनकी सहयोगी टीम को इसका श्रेय जाता है, जिन्होंने एक असंभव से सपने को सच कर दिखाया!
महिलाओं पर हो रहे अत्‍याचार के संदर्भ में चर्चा के दौरान सुधा अरोड़ा ने कहा कि दामिनी बलात्‍कार कांड के बाद ऐसा लगा कि अब कुछ कड़े कानून बनेंगे और महिलाएं सुरक्षित जीवनयापन कर सकेंगी। लेकिन इसी माह 3 मई, 2013 की सुबह के अखबार के पहले पन्ने की एक खबर पढ़कर मन उचाट हो गया। बांद्रा टर्मिनस पर दिल्ली से गरीब रथ एक्सप्रेस से मुंबई में पहली बार उतरी प्रीति राठी के ऊपर एक व्यक्ति ने एसिड फेंक दिया। हमलावर ने उसके कंधे पर पीछे से हाथ रखा और जैसे ही लड़की ने पीछे घूम कर देखा उसके चेहरे पर एसिड फेंक कर वह भाग गया। इतनी भीड़ वाले इलाके में भी कोई उसे रोक या पकड़ नहीं कर पाया और वह एक जिंदगी बर्बाद कर फरार हो गया। 22 साल की मासूम सी दिखती लड़की प्रीति राठी ने सैनिक अस्पताल में नर्स की नियुक्ति के लिए पहली बार मुंबई शहर में कदम रखा था और 15 मई से उसे अपनी पहली नौकरी की शुरुआत करनी थी। उसके पत्रों की भाषा जिस तरह से हताशा और चिंता से भरी हुई थी, वह न केवल दिल दहलाने वाली थी बल्कि एक स्त्री के जीवन में आजीविका के समानांतर किसी और विकल्प के गैरजरूरी होने का भी सबूत देती थी। एक लड़की अस्पताल में जीवन और मृत्यु से जूझ रही है लेकिन जब भी उसे होश आता है तो वह अपनी नौकरी के बचने और छोटी बहनों के सुरक्षित रहने की चिंता व्यक्त करती है।
महिलाओं पर बलात्‍कार की घटनाएं और न्‍यायिक प्रक्रिया के संदर्भ में तीखी प्रतिक्रिया देते हुए श्रीमती अरोड़ा ने कहा कि हमारी न्यायिक प्रक्रिया इतनी धीमी है कि पीड़ित को न्याय मिलना लगभग असंभव है। कमज़ोर स्त्री अपने अधिकारों के प्रति न तो जागरूक है, न उसे अपने अधिकारों की जानकारी है। कहीं कुछ रास्ता दिखे भी, तो उसके पास इतना साहस नहीं है कि अपने लिए न्याय की गुहार लगा सके। देश की न्यायिक प्रक्रिया उसके लिए एक ऐसी अंतहीन यंत्रणा बन जाती है जो अपराध से अधिक आतंकित करने वाली और डरावनी होती है। बहुत कम मामले ही मीडिया द्वारा हमारे सामने आ पाते हैं अधिकांश तो दर्ज ही नहीं हो पाते क्‍योंकि पुलिस में मामले को ले जाना एक यातनादायक प्रक्रिया है। फिर पूछताछ और तफ्तीश से पीड़ित को इतना तोड़ दिया जाता है कि वह आगे जाने की हिम्मत ही नहीं करती। इस देश में भंवरी देवी के मामले को हम देख चुके हैं जिसे सारे महिला संगठनों की कोशिश के बावजूद न्‍याय नहीं मिल पाया
सुधा अरोड़ा ने कहा कि स्त्री के संबंध में हमारा सामाजिक पर्यावरण कैसा है और उसमें लोकतंत्र की सभी संस्थाएं-विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका स्त्री के प्रति व्यवहार की कैसी नज़ीर पेश कर रही हैं? इससे हमारे युवा किस तरह की सीख ले रहे हैं? इसे हम कुछ सामान्य उदाहरणों के माध्यम से समझ सकते हैं। कार्यस्थल पर यौन-शोषण और दुर्व्‍यवहार भारत में एक जाना-पहचाना मामला है। आमतौर पर स्त्रियाँ इससे बचती हुई अपनी आजीविका को बचाने की जुगत में लगी हैं। अमूमन वे या तो चुप्पी साध लेती हैं या समझौता करते हुए वहाँ बनी रहती हैं। लेकिन जो इस मामले के खिलाफ खड़ी होती हैं और इसे बाहर ले जाने का साहस करती हैं उन्हें सबसे अधिक खामियाजा सामाजिक रूप से भोगना पड़ता है। चरित्र-हत्या और कुप्रचार के सहारे उन्हें इतना कमजोर कर दिया जाता है कि वे अक्सर अपनी लड़ाई अधूरी छोड़ देती हैं या बीच में ही थक कर बैठ जाती हैं। इसका सबसे नकारात्मक असर यह है कि जन-सामान्य, स्त्री के प्रति हुए अन्याय के खिलाफ खड़े होने की जगह, अपनी धारणा में उसे चालूमान लेता है। यही धारणा लगातार विकसित होती रहती है जो अपने जघन्य रूप में स्त्री के प्रति अपराध को रोज़मर्रा की एक सामान्य सी घटना बना देती है।
स्त्रियों पर हो रहे घटनाओं की क्रमवार श्रृंखला से निजात पाने के लिए जनता का एक बड़ा वर्ग कड़े कानून की मांग कर रहा है लेकिन हमें इस विषय पर गंभीरता से विचार करना होगा कि अगर हमारी राजनीति और अर्थव्यवस्था सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर हरसंभव पशुता को ही बढ़ावा दे रही है तो मात्र कानून इस प्रवृत्ति से छुटकारा नहीं दिला सकता। हमें उस बिंदु तक पहुंचना होगा जहां से ये सारी चीजें संचालित और नियंत्रित हो रही हैं। अगर सत्ता के करीबी वर्ग में जड़ जमा चुकी गड़बडि़याँ, नीचे और हाशियाई वर्गों में फैलेंगी तो उसका परिणाम भयावह होगा ही। निश्चित ही स्त्री हर कहीं इन स्थितियों की सबसे आसान शिकार (सॉफ्ट टारगेट) है। 
विश्‍वविद्यालय के स्‍त्री अध्‍ययन विभाग की गतिविधियों पर टिप्‍पणी करते हुए उन्‍होंने कहा कि पिछले तीन दिनों से वर्धा हिंदी विश्‍वविद्यालय में हूँ-स्त्री अध्ययन विभाग के कुछ शोध-प्रबंध देखे! बहुत अलग किस्म का और बेहद ज़रूरी काम करवाया जा रहा है इस विभाग में! आज देश के हर विश्‍वविद्यालय में स्त्री अध्ययन विभाग खुलने की ज़रूरत महसूस की जा रही है। अफ़सोस की बात है कि कई विश्‍वविद्यालयों में ये विभाग बंद होने की कगार पर हैं क्योंकि विद्यार्थी वहां जुट नहीं पा रहे! वर्धा में इस विभाग में जिस तरह का काम हो रहा है, वह देश-विदेश के किसी भी विभाग के लिए अनुकरणीय है! इस विश्‍वविद्यालय में हिंदीतर भाषी विद्यार्थियों को अनिवार्य रूप से भाषा, व्‍याकरण, वाक्‍य विन्‍यास का एक क्रैश कोर्स प्राथमिक रूप से करवाया जाए ताकि विषय और विमर्श की जानकारी के साथ-साथ वे हिंदी की भाषागत समृद्धि से भी परिचित हो सकें।
  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें