सोमवार, 30 जुलाई 2012



समय ही असली स्रष्टा है / शिवमूर्ति


हमारी भाषा के महत्वपूर्ण लेखक शिवमूर्ति की कहानियों, उनके उपन्यासों में वह ग्रामीण जीवन धड़कता दिखाई देता है जिसे पिछले बरसों में हिंदी समाज ने भुला दिया है । हिंदी कहानी में शिवमूर्ति तब आए, जब कहानी में परिवेश मजबूत हो रहा था और पात्र कमजोर। ऐसी स्थिति में न सिर्फ उन्होंने मजबूत पात्रों को खड़ा किया, बल्कि परिवेश से उनका तादात्म्य भी स्थापित किया। अपने समकालीन कथाकारों में वे अकेले हैं, जिनके यहां स्त्रियां इतने विविध रूपों में उपस्थित हैं। कह सकते हैं कि शिवमूर्ति ने अविस्मरणीय परिवेश तो रचा ही है, उनमें बसे उनके पात्र भी अद्भुत और अविस्मरणीय हैं। रेणु की परंपरा के वे सबसे बड़े समकालीन लेखक हैं। उनकी एक कहानी 'तिरियाचरित्तर' पर प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक बासु चटर्जी ने फिल्म का भी निर्माण किया था। हाल ही में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में कहानी पाठ के लिए आए शिवमूर्ति जी से राजेश यादव की बातचीत ।
अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताएं।
कोई कहानी मेरे दिमाग में सबसे पहले एक बिम्ब के रूप में उभरती है। कोई चित्रपटल, कोई चरित्र या कोई संवाद । कोई चरित्र उभरा और उसके साथ कोई संवाद रहा। या फिर कोई कोई घटना रही । उसी के इर्द गिर्द मेरी कहानी की बुनावट शुरू होती है। धीरे धीरे उसमे उसके अन्य अवयव भी आ जाते हैं। लेखक के 'मैं' में कम से कम दो व्यक्तित्व समाये होते हैं। एक वह जो साधारण जन की तरह अपने समय से सीधे दो-दो हाथ कर रहा होता है। सब कुछ भोगता, झेलता, सहता और प्रतिक्रिया कर रहा होता है, दूसरा वह जो हर झेले, भोगे, सहे हुए को तीसरे की तरह देखता, सुनता, धुनता और सहेजता चलता है। यह दूसरा 'परायों' के झेले, भोगे को भी उसी तल्लीनता और सरोकार के साथ आत्मसात करता है जैसे स्वयं झेल, भोग रहा हो। कालांतर में इस अपने और पराये की दूरी धीरे-धीरे खत्म होती जाती है।जब यह दूसरा व्यक्तित्व अपने किसी पात्र में इस झेले, भोगे गये अनुभव को आरोपित करता है, तब तक यह अनुभव खुद लेखक का अनुभव बन चुका होता है। इसीलिए काल्पनिक पात्र के काल्पनिक दुख को चित्रित करते समय निकलने वाले उसके आंसू वास्तविक होते हैं।वास्त्व में समय ही असली स्रष्टा है।
आपके संस्मरणात्मक आलेख 'मैं और मेरा समय' को पढ़ने से कोई भी जान सकता है कि आपकी शुरूआती जि़न्दगी कितनी संघर्षमय रही है। किंतु आपने अपने व्यक्तिगत जिन्दगी की कटुता या तल्ख़ी को कहानियों का विषय नहीं बनाया।
हमारा संघर्ष परिस्थितिजन्य था। जहाँ तक कठिनाइयों में जीवन गुजारने की बात है, हमारे आस-पास के नब्बे प्रतिशत लोगों का जीवन इन्हीं परिस्थितियों में बीत रहा था। इसलिए तब तो यह बात मन में ही नहीं आती थी कि हम कठिनाई या आतंक के साये में जी रहे हैं। यह तो अब पता चल रहा है उन परिस्थितियों से उबर कर..... दूर से देखने और वर्तमान से तुलना करने पर, कि वह जिन्दगी बीहड़ थी।..... अभी तक मैंने अपनी व्यक्तिगत जिन्दगी की कटुता या तल्ख़ी को कहानियों का विषय बनाया भी नहीं है।
आपके शुरूआती जीवन के यथार्थ और बदलते यथार्थ के साथ आपका नज़रिया किस तरह बदल रहा है?
मैं समय के साथ चलने की कोशिश करता हूं। जैसे मेरी एक कहानी है सिरी उपमा जोग। इसे मैनें 1984 में लिखा था। 28 साल गुजर गए। तब से यथार्थ में काफी कुछ बदलाव आया है।  हाल में ही मेरी एक नई कहानी आई है ख्वाजा ओ मेरे पीर। उसमें आज का गांव दिखाई देता है। गांव में बिजली नहीं आती, बच्चे पढ नहीं रहे हैं , शिक्षा का नाश हो गया है ।  मेरे उपन्यास आखिरी छलांग में भी मैंने ग्रामीण जीवन के बदलते यथार्थ को दिखाने का प्रयास किया है।  यथार्थ जैसा रहेगा, वैसा ही दिखाई देगा। हमको भी और आप सबको भी। और वह जैसा होगा, उसी तरह रचना में आयेगा। मेरा नजरिया किसी पूर्वनिर्धारित सोच या विचारधारा से नियन्त्रित नहीं होता। जीवन को उसकी सघनता और निश्छलता में जीते हुए ही मेरे रचनात्मक सरोकार आकार ग्रहण करते हैं। पहले का यथार्थ यह था कि 'कसाईबाड़ा' की हरिजन स्त्री सनीचरी धोखे/जबरदस्ती से मार दी जाती थी.....उसकी खेती-बारी हड़प ली जाती थी। आज का यथार्थ 'तर्पण'में है। सनीचरी जैसे चरित्रों की अगली पीढ़ी रजपतिया के साथ जबरदस्ती का प्रयास होता है तो गाँव के सारे दलित इकट्‌ठा हो जाते हैं। सिर्फ इकट्‌ठा नहीं, बल्कि उस लड़ाई में वे संकट का समाना करते हैं। वे लड़ाई जीतने के लिए हर चीज़ का सहारा लेते हैं। उसमें उचित या अनुचित का सवाल भी इतना प्रासंगिक नहीं लगता। उनके लिए हर वह सहारा उचित है जो उनके संघर्ष को धार दे सके। पहले थोड़ा अमूर्तन भी था। अब टोले का विभाजन दो प्रतिद्वन्द्वियों के रूप में सानमे खड़ा है। जातियों के समीकरण पहली कतार में आ गये हैं। 1980 से 2000 तक जो परिवर्तन आया वह मेरी रचनाओं में साफ दिखता है। .....मैं 'तर्पण' को ध्यान में रखकर कह रहा हूँ। इससे आगे का यथार्थ भी मेरी रचनाओं में आ रहा है..... और उससे आप मेरा नजरिया समझ सकते हैं।
'तिरिया चरित्तर' का यथार्थ जाने कितनी बिडम्बनाओं और अमानवीयताओं से घिर गया है!
जीवन में, प्रेम में पंच, सरपंच, पंचायत, बिरादरी, धर्म, समप्रदाय का इतना दखल होता जा रहा है कि शिक्षा या सभ्यता के सारे दावे खोखले नजर आते हैं। आज ऐसे समाचार अपवाद नहीं रहे कि एक प्रेमी जोडे़ के साथ कैसा कबीलाई बर्ताव हुआ। या किसी लड़की पर कैसे वहशियाना आरोप मढे़ गये। कई घटनाओं में तो माँ-बाप की भी सहमति हो जाती है कि लड़का/लड़की को काट डालो। कई बार पिता के हाथों लड़का/लड़की को फाँसी दिलवाई जाती है। पंचों में वहशीपन दिख रहा है। फैनेटिज्म या नासमझी पहले से कहीं ज्यादा है। यह विकास है? इन सच्चाइयों को परखना हो तो ऐसी जिन्दगी के बीच में आना पडे़गा।
स्त्रियों से जुडे़ सवालों को आपने अपनी कहानियों में बहुत मजबूती से उठाया है या यों कहें कि आपकी ज्यादातर कहानियों के केंद्र में स्त्रियां ही हैं। इसके पीछे क्या कारण है ।
हमारा होना ही स्त्री के होने से जुड़ा है। हमारी नाल ही स्त्री से जुड़ी है। वह न हो तो हम कहाँ हों! अगर किसी के जीवन का रस आधी राह में ही नहीं सूख जाता है तो निश्चय ही उसके पीछे कोई स्त्री होगी। हमारा समाज स्त्रियों के प्रति ज्यादा न्यायसंगत या मानवीय नहीं रहा है। इसलिए मैं सबसे ज्यादा इस बात में भरोसा रखता हूँ कि खुद स्त्रियों द्वारा... लड़कियों द्वारा जो जागरूकता आ रही है, वह ज्यादा महत्वपूर्ण या आशापूर्ण है। अब इस स्त्री-यथार्थ के भी कई पहलू हैं। स्त्रियाँ जितनी सचेत हो रही हैं, प्रतिहिंन्सा में पुरूष बर्चस्व उतना ही असहिष्णु हो रहा है। प्रतिक्रिया में पुरूष उत्पीड़न के नये-नये हरबा हथियार आजमा रहे हैं। यानी स्त्रियों के जागरूक होने पर जो होना चाहिए था, विडम्बना यह कि उसका उलटा हो रहा है। स्त्री-विमर्श का क्षेत्र बहुत व्यापक है। स्त्री विमर्श की जिन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है वे हैं किसान, मजदूर, स्त्रियाँ। चाहे गाँव में रह रही हों या शहर में, लेकिन खुद उनमें उतनी जागरूकता नहीं है, उनके बीच से कोई लेखिका नहीं है। और जो शहरी बेल्ट की लेखिकाएँ हैं, उन्हें उन नब्बे प्रतिशत की जानकारी नहीं है।
बहुत सारे लेखक पाठकों का रोना रोते हैं या उन पर कई तरह के ठीकरे फोड़ते रहते हैं। आपके अनुभव क्या हैं?
     मेरे अनुभव बहुत ही अच्छे हैं। मेरी रचनाओं से कितने पाठक जुड़ते हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि मेरे ऊपर पाठकीय अपेक्षाओं का दबाव रहता हो। जो विषय जिस रूप में हांट करता है उद्वेलित करता है, उसी को उठाता हूँ। कोशिश करता हूँ कि विषय या समस्या स्पष्ट हो जाय। फिर निष्पति का ध्यान देता हूँ। उसी में कुछ अच्छा कुछ खराब बन जाता है। यह अपेक्षा नहीं करता कि हर बार पाठक प्रशंसा ही करेंगे। जैसे, जिन्होंने 'केशर कस्तूरी', 'सिरी उपमा जोग', 'भरत नाट्‌यम' वगैरह को सराहा, उन्हीं ने 'त्रिशूल' पर आपत्ति की। उन्हें जातिवाद की गन्ध आई। लेकिन बहुत सारे लोगों ने कहा कि यह हुई कोई बात! अब तक औरतों का रोना गाना लिखते रहे, अब ढँग की चीज़ लिखी है। दोनों ही तरह के पाठक सही लगते हैं, जब वर्गीय स्थिति पर नजर डालते हैं।
आप गाँव के जीवन पर ही ज्यादातर  लिखते रहे हैं।
जिस गाँव से मैं परिचित हूँ, वहाँ का जीवन इतना दारूण है कि शहर की कोई समस्या ही नहीं लगती। और अब तो... क्या कहूँ! मजूर किसान एका करके समस्याओं से जूझना चाहते हैं मगर क्या करें । अगले दो दशक गाँव पर लिखता रहूँ तब भी जाने कितना बचा रहेगा। यह मेरी प्राथमिकता है तो और कुछ सोचने का मौका ही नहीं मिल पाता।
आपकी शैली तो विशिष्ठ है ही, आपकी भाषा भी अलग से पहचानी जाती है। भाषा को यह शक्ति कहाँ से मिलती है?
भाषा की ताकत मैं लोकजीवन और लोकगीतों से बटोरता हूँ। लोकगीतों में लगभग बहुत कम पढे़ लोग, कम से कम शब्दों में अपनी बात कहते रहते हैं। मैं प्रचलित मुहावरों की शक्ति सँजोता रहता हूँ। मैं अपनी कहानियों में इस शक्ति को विस्तार देता हूँ। मेरी कहानियों में लोकगीतों के अंश आते रहते हैं।
कला पक्ष की ओर से आप थोड़ा उदासीन हो जाते हैं। आपकी दृष्टि में क्या ज्यादा महत्त्वपूर्ण है!
कथ्य और शिल्प दोनों महत्वपूर्ण हैं। एक आत्मा है तो दूसरा शरीर। कथ्य रूपी आत्मा न हो तो शिल्प मुर्दे को सजाने का उपक्रम बनकर रह जाएगा। लेकिन शिल्प पर ध्यान न दिया जाय और अनगढ़ रूप में चीज सामने आये, यह भी मेरी नजर में क्षम्य नहीं है। रस परिपाक में शिल्प का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
अब आखिरी सवाल। आप भविष्य में क्या-क्या लिखने की तैयारी कर हरे हैं!
लिखने को तो बहुत कुछ सोचा है। तीन उपन्यास अधूरे पडे़ हैं। सभी गाँव की जिन्दगी पर हैं। एक आत्मकथात्मक उपन्यास है। मेरे विचार से गाँव पर तो इतना लिखने को है कि कई लोग लिखें तो भी पूरा न हो। ऐसे समझ लीजिए कि 'सब धरती कागद करूँ लेखनि सब बनराय। सात समुद की मसि करूँ गुरू गुन लिखा न जाय' वाली निहाद है।... लेकिन क्या लिख सकूँगा...? अभी से क्या बाताएँ क्या हमारे दिल में है!

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