सोमवार, 30 जुलाई 2012



समय ही असली स्रष्टा है / शिवमूर्ति


हमारी भाषा के महत्वपूर्ण लेखक शिवमूर्ति की कहानियों, उनके उपन्यासों में वह ग्रामीण जीवन धड़कता दिखाई देता है जिसे पिछले बरसों में हिंदी समाज ने भुला दिया है । हिंदी कहानी में शिवमूर्ति तब आए, जब कहानी में परिवेश मजबूत हो रहा था और पात्र कमजोर। ऐसी स्थिति में न सिर्फ उन्होंने मजबूत पात्रों को खड़ा किया, बल्कि परिवेश से उनका तादात्म्य भी स्थापित किया। अपने समकालीन कथाकारों में वे अकेले हैं, जिनके यहां स्त्रियां इतने विविध रूपों में उपस्थित हैं। कह सकते हैं कि शिवमूर्ति ने अविस्मरणीय परिवेश तो रचा ही है, उनमें बसे उनके पात्र भी अद्भुत और अविस्मरणीय हैं। रेणु की परंपरा के वे सबसे बड़े समकालीन लेखक हैं। उनकी एक कहानी 'तिरियाचरित्तर' पर प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक बासु चटर्जी ने फिल्म का भी निर्माण किया था। हाल ही में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में कहानी पाठ के लिए आए शिवमूर्ति जी से राजेश यादव की बातचीत ।
अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताएं।
कोई कहानी मेरे दिमाग में सबसे पहले एक बिम्ब के रूप में उभरती है। कोई चित्रपटल, कोई चरित्र या कोई संवाद । कोई चरित्र उभरा और उसके साथ कोई संवाद रहा। या फिर कोई कोई घटना रही । उसी के इर्द गिर्द मेरी कहानी की बुनावट शुरू होती है। धीरे धीरे उसमे उसके अन्य अवयव भी आ जाते हैं। लेखक के 'मैं' में कम से कम दो व्यक्तित्व समाये होते हैं। एक वह जो साधारण जन की तरह अपने समय से सीधे दो-दो हाथ कर रहा होता है। सब कुछ भोगता, झेलता, सहता और प्रतिक्रिया कर रहा होता है, दूसरा वह जो हर झेले, भोगे, सहे हुए को तीसरे की तरह देखता, सुनता, धुनता और सहेजता चलता है। यह दूसरा 'परायों' के झेले, भोगे को भी उसी तल्लीनता और सरोकार के साथ आत्मसात करता है जैसे स्वयं झेल, भोग रहा हो। कालांतर में इस अपने और पराये की दूरी धीरे-धीरे खत्म होती जाती है।जब यह दूसरा व्यक्तित्व अपने किसी पात्र में इस झेले, भोगे गये अनुभव को आरोपित करता है, तब तक यह अनुभव खुद लेखक का अनुभव बन चुका होता है। इसीलिए काल्पनिक पात्र के काल्पनिक दुख को चित्रित करते समय निकलने वाले उसके आंसू वास्तविक होते हैं।वास्त्व में समय ही असली स्रष्टा है।
आपके संस्मरणात्मक आलेख 'मैं और मेरा समय' को पढ़ने से कोई भी जान सकता है कि आपकी शुरूआती जि़न्दगी कितनी संघर्षमय रही है। किंतु आपने अपने व्यक्तिगत जिन्दगी की कटुता या तल्ख़ी को कहानियों का विषय नहीं बनाया।
हमारा संघर्ष परिस्थितिजन्य था। जहाँ तक कठिनाइयों में जीवन गुजारने की बात है, हमारे आस-पास के नब्बे प्रतिशत लोगों का जीवन इन्हीं परिस्थितियों में बीत रहा था। इसलिए तब तो यह बात मन में ही नहीं आती थी कि हम कठिनाई या आतंक के साये में जी रहे हैं। यह तो अब पता चल रहा है उन परिस्थितियों से उबर कर..... दूर से देखने और वर्तमान से तुलना करने पर, कि वह जिन्दगी बीहड़ थी।..... अभी तक मैंने अपनी व्यक्तिगत जिन्दगी की कटुता या तल्ख़ी को कहानियों का विषय बनाया भी नहीं है।
आपके शुरूआती जीवन के यथार्थ और बदलते यथार्थ के साथ आपका नज़रिया किस तरह बदल रहा है?
मैं समय के साथ चलने की कोशिश करता हूं। जैसे मेरी एक कहानी है सिरी उपमा जोग। इसे मैनें 1984 में लिखा था। 28 साल गुजर गए। तब से यथार्थ में काफी कुछ बदलाव आया है।  हाल में ही मेरी एक नई कहानी आई है ख्वाजा ओ मेरे पीर। उसमें आज का गांव दिखाई देता है। गांव में बिजली नहीं आती, बच्चे पढ नहीं रहे हैं , शिक्षा का नाश हो गया है ।  मेरे उपन्यास आखिरी छलांग में भी मैंने ग्रामीण जीवन के बदलते यथार्थ को दिखाने का प्रयास किया है।  यथार्थ जैसा रहेगा, वैसा ही दिखाई देगा। हमको भी और आप सबको भी। और वह जैसा होगा, उसी तरह रचना में आयेगा। मेरा नजरिया किसी पूर्वनिर्धारित सोच या विचारधारा से नियन्त्रित नहीं होता। जीवन को उसकी सघनता और निश्छलता में जीते हुए ही मेरे रचनात्मक सरोकार आकार ग्रहण करते हैं। पहले का यथार्थ यह था कि 'कसाईबाड़ा' की हरिजन स्त्री सनीचरी धोखे/जबरदस्ती से मार दी जाती थी.....उसकी खेती-बारी हड़प ली जाती थी। आज का यथार्थ 'तर्पण'में है। सनीचरी जैसे चरित्रों की अगली पीढ़ी रजपतिया के साथ जबरदस्ती का प्रयास होता है तो गाँव के सारे दलित इकट्‌ठा हो जाते हैं। सिर्फ इकट्‌ठा नहीं, बल्कि उस लड़ाई में वे संकट का समाना करते हैं। वे लड़ाई जीतने के लिए हर चीज़ का सहारा लेते हैं। उसमें उचित या अनुचित का सवाल भी इतना प्रासंगिक नहीं लगता। उनके लिए हर वह सहारा उचित है जो उनके संघर्ष को धार दे सके। पहले थोड़ा अमूर्तन भी था। अब टोले का विभाजन दो प्रतिद्वन्द्वियों के रूप में सानमे खड़ा है। जातियों के समीकरण पहली कतार में आ गये हैं। 1980 से 2000 तक जो परिवर्तन आया वह मेरी रचनाओं में साफ दिखता है। .....मैं 'तर्पण' को ध्यान में रखकर कह रहा हूँ। इससे आगे का यथार्थ भी मेरी रचनाओं में आ रहा है..... और उससे आप मेरा नजरिया समझ सकते हैं।
'तिरिया चरित्तर' का यथार्थ जाने कितनी बिडम्बनाओं और अमानवीयताओं से घिर गया है!
जीवन में, प्रेम में पंच, सरपंच, पंचायत, बिरादरी, धर्म, समप्रदाय का इतना दखल होता जा रहा है कि शिक्षा या सभ्यता के सारे दावे खोखले नजर आते हैं। आज ऐसे समाचार अपवाद नहीं रहे कि एक प्रेमी जोडे़ के साथ कैसा कबीलाई बर्ताव हुआ। या किसी लड़की पर कैसे वहशियाना आरोप मढे़ गये। कई घटनाओं में तो माँ-बाप की भी सहमति हो जाती है कि लड़का/लड़की को काट डालो। कई बार पिता के हाथों लड़का/लड़की को फाँसी दिलवाई जाती है। पंचों में वहशीपन दिख रहा है। फैनेटिज्म या नासमझी पहले से कहीं ज्यादा है। यह विकास है? इन सच्चाइयों को परखना हो तो ऐसी जिन्दगी के बीच में आना पडे़गा।
स्त्रियों से जुडे़ सवालों को आपने अपनी कहानियों में बहुत मजबूती से उठाया है या यों कहें कि आपकी ज्यादातर कहानियों के केंद्र में स्त्रियां ही हैं। इसके पीछे क्या कारण है ।
हमारा होना ही स्त्री के होने से जुड़ा है। हमारी नाल ही स्त्री से जुड़ी है। वह न हो तो हम कहाँ हों! अगर किसी के जीवन का रस आधी राह में ही नहीं सूख जाता है तो निश्चय ही उसके पीछे कोई स्त्री होगी। हमारा समाज स्त्रियों के प्रति ज्यादा न्यायसंगत या मानवीय नहीं रहा है। इसलिए मैं सबसे ज्यादा इस बात में भरोसा रखता हूँ कि खुद स्त्रियों द्वारा... लड़कियों द्वारा जो जागरूकता आ रही है, वह ज्यादा महत्वपूर्ण या आशापूर्ण है। अब इस स्त्री-यथार्थ के भी कई पहलू हैं। स्त्रियाँ जितनी सचेत हो रही हैं, प्रतिहिंन्सा में पुरूष बर्चस्व उतना ही असहिष्णु हो रहा है। प्रतिक्रिया में पुरूष उत्पीड़न के नये-नये हरबा हथियार आजमा रहे हैं। यानी स्त्रियों के जागरूक होने पर जो होना चाहिए था, विडम्बना यह कि उसका उलटा हो रहा है। स्त्री-विमर्श का क्षेत्र बहुत व्यापक है। स्त्री विमर्श की जिन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है वे हैं किसान, मजदूर, स्त्रियाँ। चाहे गाँव में रह रही हों या शहर में, लेकिन खुद उनमें उतनी जागरूकता नहीं है, उनके बीच से कोई लेखिका नहीं है। और जो शहरी बेल्ट की लेखिकाएँ हैं, उन्हें उन नब्बे प्रतिशत की जानकारी नहीं है।
बहुत सारे लेखक पाठकों का रोना रोते हैं या उन पर कई तरह के ठीकरे फोड़ते रहते हैं। आपके अनुभव क्या हैं?
     मेरे अनुभव बहुत ही अच्छे हैं। मेरी रचनाओं से कितने पाठक जुड़ते हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि मेरे ऊपर पाठकीय अपेक्षाओं का दबाव रहता हो। जो विषय जिस रूप में हांट करता है उद्वेलित करता है, उसी को उठाता हूँ। कोशिश करता हूँ कि विषय या समस्या स्पष्ट हो जाय। फिर निष्पति का ध्यान देता हूँ। उसी में कुछ अच्छा कुछ खराब बन जाता है। यह अपेक्षा नहीं करता कि हर बार पाठक प्रशंसा ही करेंगे। जैसे, जिन्होंने 'केशर कस्तूरी', 'सिरी उपमा जोग', 'भरत नाट्‌यम' वगैरह को सराहा, उन्हीं ने 'त्रिशूल' पर आपत्ति की। उन्हें जातिवाद की गन्ध आई। लेकिन बहुत सारे लोगों ने कहा कि यह हुई कोई बात! अब तक औरतों का रोना गाना लिखते रहे, अब ढँग की चीज़ लिखी है। दोनों ही तरह के पाठक सही लगते हैं, जब वर्गीय स्थिति पर नजर डालते हैं।
आप गाँव के जीवन पर ही ज्यादातर  लिखते रहे हैं।
जिस गाँव से मैं परिचित हूँ, वहाँ का जीवन इतना दारूण है कि शहर की कोई समस्या ही नहीं लगती। और अब तो... क्या कहूँ! मजूर किसान एका करके समस्याओं से जूझना चाहते हैं मगर क्या करें । अगले दो दशक गाँव पर लिखता रहूँ तब भी जाने कितना बचा रहेगा। यह मेरी प्राथमिकता है तो और कुछ सोचने का मौका ही नहीं मिल पाता।
आपकी शैली तो विशिष्ठ है ही, आपकी भाषा भी अलग से पहचानी जाती है। भाषा को यह शक्ति कहाँ से मिलती है?
भाषा की ताकत मैं लोकजीवन और लोकगीतों से बटोरता हूँ। लोकगीतों में लगभग बहुत कम पढे़ लोग, कम से कम शब्दों में अपनी बात कहते रहते हैं। मैं प्रचलित मुहावरों की शक्ति सँजोता रहता हूँ। मैं अपनी कहानियों में इस शक्ति को विस्तार देता हूँ। मेरी कहानियों में लोकगीतों के अंश आते रहते हैं।
कला पक्ष की ओर से आप थोड़ा उदासीन हो जाते हैं। आपकी दृष्टि में क्या ज्यादा महत्त्वपूर्ण है!
कथ्य और शिल्प दोनों महत्वपूर्ण हैं। एक आत्मा है तो दूसरा शरीर। कथ्य रूपी आत्मा न हो तो शिल्प मुर्दे को सजाने का उपक्रम बनकर रह जाएगा। लेकिन शिल्प पर ध्यान न दिया जाय और अनगढ़ रूप में चीज सामने आये, यह भी मेरी नजर में क्षम्य नहीं है। रस परिपाक में शिल्प का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
अब आखिरी सवाल। आप भविष्य में क्या-क्या लिखने की तैयारी कर हरे हैं!
लिखने को तो बहुत कुछ सोचा है। तीन उपन्यास अधूरे पडे़ हैं। सभी गाँव की जिन्दगी पर हैं। एक आत्मकथात्मक उपन्यास है। मेरे विचार से गाँव पर तो इतना लिखने को है कि कई लोग लिखें तो भी पूरा न हो। ऐसे समझ लीजिए कि 'सब धरती कागद करूँ लेखनि सब बनराय। सात समुद की मसि करूँ गुरू गुन लिखा न जाय' वाली निहाद है।... लेकिन क्या लिख सकूँगा...? अभी से क्या बाताएँ क्या हमारे दिल में है!

शुक्रवार, 27 जुलाई 2012


हिंदी विश्‍वविद्यालय में पौधारोपण अभियान

महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय में स्‍टाफ क्‍लब एवं पर्यावरण क्‍लब के संयुक्‍त सहयोग से बुधवार को पौधारोपण अभियान का आरंभ किया गया। कुलपति विभूति नारायण राय ने वृक्ष लगाकर इस अभियान की औपचारिक शुरूआत की। इस अवसर पर निसर्ग सेवा समिति के मुरलीधर बेलखोडे, कस्‍तुरबा हॉस्‍पीटल, सेवाग्राम के पूर्व अधिष्‍ठाता डा. ओ. पी. गुप्‍ता, सर्जरी विभाग के विभाग प्रमुख डा. दिलीप गुप्‍ता, साहित्‍य विद्यापीठ के अधिष्‍ठाता प्रो. सूरज पालीवाल, विशेष कर्तव्‍य अधिकारी नरेन्‍द्र सिंह, उपकुलसचिव पी. सरदार सिंह, बैंक आफ इंडिया, हिंदी विश्‍वविद्यालय ब्रांच के प्रबंधक बांदे, डॉ. अनवर सिद्दीकी, डा. उमेश कुमार सिंह, प्रो. के. के. सिंह, प्रो. राम वीर सिंह, स्‍टाफ क्‍लब के अध्यक्ष्‍ा गिरीश पांडेय, बी. एस. मिरगे, पर्यावरण क्‍लब के प्रभारी अनिर्वाण घोष, राजेश अरोड़ा, कमला थोकचोम, विनय भूषण, तुषार वानखेडे, हेमा गोडबोले,  अमित विश्‍वास, राजेन्‍द्र घोडमारे, आर. के. दामले आदि ने विभिन्‍न प्रकार के वृक्ष लगाकर इस अभियान में बढ़चढ़ कर हिस्‍सा लिया।

मंगलवार, 24 जुलाई 2012


हिंदी विवि में चीनी व क्रोशिया के छात्रों का स्‍वागत

महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय में चीन के दो विश्‍वविद्यालयों से दस दस तथा क्रोशिया से आयी छात्रा का विवि के भाषा विद्यापीठ में कुलपति विभूति नारायण राय की अध्‍यक्षता में आयोजित एक समारोह में भव्‍य स्‍वागत किया गया। इस अवसर पर प्रतिकुलपति तथा विदेशी शिक्षण प्रकोष्‍ठ के अध्‍यक्ष प्रो. ए. अरविंदाक्षन, भाषा विद्यापीठ के प्रो. उमाशंकर उपाध्‍याय, प्रो. विजय कौल, विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित अशोक वाजपेयी, प्रो. सुरेश शर्मा, प्रो. राम शरण जोशी, प्रो. बी. एम. मुखर्जी, डॉ. जगदी दांगी, प्रो. के. के. सिंह, डॉ. हरीष हुनगुंद प्रमुखता से उपस्थित थे।
        विश्‍वविद्यालय में आगमन पर छात्र-छात्राओं का गर्मजोशी से स्‍वागत करते हुए कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि चीन और भारत महान सभ्‍यता वाले देश हैं और दोनों देश आर्थिक दृष्टि से बड़ी तेज गति से आगे बढ़ने वाले देश हैं। चीन से आए छात्रों के प्रति प्रसन्‍नता जाहिर करते हुए कुलपति राय ने कहा कि आप लोग इन दोनों सभ्‍यताओं और भावी महाशक्तियों के देशों को जोड़ने का काम करेंगे तथा यहां से हिंदी सीखकर सांस्‍कृतिक दूत बनकर अपने देश जाएंगे।
        प्रो. ए. अरविंदाक्षन ने अपने संबोधन में कहा कि विश्‍वविद्यालय में आने वाले समय में हिंदी सीखने हेतु अन्‍य देशों से भी छात्र-छात्राएं आने वाले हैं। इस अवसर पर प्रो. उमाशंकर उपाध्‍याय तथा प्रो. विजय कौल ने भी छात्रों के स्‍वागत में उदबोधन दिए। प्रारंभ में सभी छात्र-छात्राओं का गुलाब पुष्‍प से स्‍वागत किया गया। समारोह का संचालन डॉ. अनिल दुबे ने किया तथा धन्‍यवाद ज्ञापन भाषा प्रौद्योगिकी विभाग के अध्‍यक्ष प्रो. अनिल पाण्‍डेय ने किया। कार्यक्रम में बड़ी संख्‍या में विद्यार्थी भी उपस्थित थे।




शुक्रवार, 20 जुलाई 2012


अर्थक्रांति समर्पण यात्रा का दल हिंदी विवि में

संग्रहालय, मीडिया केंद्र व गांधी हिल का किया दौरा

अर्थक्रांति की समर्पण यात्रा का दल शुक्रवार को महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय पहुंचा। इस दल ने विश्‍वविद्यालय में स्‍थापित स्‍वामी सहजानंद सरस्‍वती संग्रहालय, संचार एवं मीडिया अध्‍ययन केंद्र में जाकर छात्र एवं अध्‍यापकों से चर्चा की। संग्रहालय में आयोजित एक समारोह में दल में शामिल 50 सदस्‍यों का स्‍वागत करते हुए संग्रहालय के प्रभारी प्रो. सुरेश शर्मा ने उन्‍हें विश्‍वविद्यालय की अकादमिक एवं विकासात्‍मक गतिविधियों की जानकारी दी वहीं संचार एवं मीडिया अध्‍ययन केंद्र में दल के सदस्‍यों ने मीडिया के छात्रों से वार्तालाप किया। इस अवसर पर संचार एवं मीडिया अध्‍ययन केंद्र के डॉ. अख्‍तर आलम, राजेश लेहकपुरे, रेणु सिंह, संदीप वर्मा, जनसंपर्क अधिकारी बी. एस. मिरगे, श्रीरमण मिश्रा, राकेश श्रीमाल आदि प्रमुखता से उपस्थित थे। दल के सदस्‍यों ने गांधी हिल्‍स जाकर गांधी जी की प्रतिमा का दर्शन किया। इस दौरान दल के सदस्‍यों ने कुलसचिव डॉ. कैलाश खामरे से चर्चा की तथा विवि के विकास को लेकर उन्‍हें बधाई दी।

बुधवार, 18 जुलाई 2012



दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राएं हिंदी विश्वविद्यालय में
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में बुधवार को दिनभर दिल्ली  विश्वविद्यालय के अध्या‍पक व छात्राएं ज्ञानोदय एक्सदप्रेस के तहत विश्वविद्यालय परिसर का भ्रमण करती रहीं। इस दल में दिल्ली विश्वविद्यालय के 35 महाविद्यालयों की 886 छात्राएं व 65 अध्यापक शामिल थे। ये दल पिछले 08 जुलाई से शैक्षिक भ्रमण पर निकला  है ।
इस अवसर पर विश्वविद्यालय के गांधी हिल पर आयोजित भव्य स्वागत समारोह को संबोधित करते हुए कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि गांधी जी की मुख्य कर्मभूमि, वर्धा में स्थापित यह विश्वविद्यालय दिखने में छोटा जरूर है पर हमारा दिल बड़ा है। वर्धा शहर आजादी की लड़ाई का प्रमुख केन्द्र रहा है। देश की  आजादी के अधिकांश फैसले यहीं पर लिये गये। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. दूबे तथा परमिंदर कौर का स्वागत चरखा, सूत की माला तथा पुष्पगुच्छ प्रदान कर किया गया।
समारोह का संचालन विश्वविद्यालय के बौद्ध अध्ययन केन्द्र के प्रभारी डॉ. सुरजीत सिंह ने किया तथा कुलसचिव डॉ.के.जी. खामरे ने आभार किया। विदित हो कि दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र तथा अध्यापक पिछले दस दिनों से भारत भ्रमण पर हैं। ये दल ज्ञानोदय एक्सप्रेस के नाम से अपनी निजी ट्रेन बुक कराकर 8 जुलाई से 19 जुलाई 2012 तक भारत भ्रमण पर निकला  है । यह दल साबरमती आश्रम, मुंबई, बंगलौर, मैसूर, गोवा आदि स्थानों का  भ्रमण करते हुए बुधवार को वर्धा पहुंचा । दल ने वर्धा में बापू कुटी, पवनार आश्रम तथा महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय का भ्रमण किया ।
 इस रेल का मुख्य उद्देश्य अध्यापक, छात्रों व महिलाओं में पश्चिमी भारत में लोगों की विविधताओं को लेकर गांधीवादी विचारधारा का प्रचार करना है। इस यात्रा के आधार पर छात्रायें स्टडी कंपार्टमेंट, खानपान की आदतों, सामाजिक पहलुओं को मंच पर लाने, कृषि, भाषा व साहित्य  अथवा क्षेत्रीय जातीयता के लिए पुस्तक की समीक्षा करेंगी  तथा उनके अनुभवों को बांटने व गांधी के विचारों व आत्मन-सहायता की विचारधारा के पहलुओं को एकीकृत कर आधुनिक भारत के सामने रखेंगी ।

सोमवार, 16 जुलाई 2012


सरबजीत-1

सरबजीत की बेटी बड़ी हो गयी है
उसने नहीं देखा  अपनी  आँखों से
दिन ब दिन  बढती हुई अपनी बेटी को
बेटी ने भी नहीं देखा अपने पिता को
जब वह बड़ी हो रही थी
बाईस साल गुज़र गए
बीवी..मां ..बेटी ...बहन .............
सबके सब ......बाईस बरस ......
कितना  कुछ  बदल गया है सरबजीत के घर.....
हर दिन... कोई उसके इंतज़ार में ...
सरबजीत लौटेगा....?

सरबजीत-२

कितने सरबजीतों  ने
नहीं देखा होगा   अपनी बेटियों को बड़ी होती हुई ?
और जब वो ब्याही होंगी तब भी
नहीं देखा होगा  अपनी बेटियों को ...

उनकी बेटियों ,माँओं, बहनों , बीवियों के हिस्से में
क्यों इतने आंसू आते हैं ?
क्योंकि वे जननी हैं
नष्ट होता हुआ नहीं देखना चाहती अपने सृजन को.......
रोक लेना चाहती है उन सारे  युद्धों  को .......
जहाँ उनका सृजन नष्ट हो रहा है ..........

रेणु कुमारी
शोधार्थी

बुधवार, 4 जुलाई 2012


आधुनिक गद्य साहित्य  के जनक थे फ्रेंज काफ्का- विजय मोहन सिंह

फ्रेंज़ काफ्का आधुनिक गद्य साहित्य  के जनक थे। काफ्का ने  दि ट्रायलएवं दि मेटामोर्फोसिसजैसी कृतियों के माध्यम से आधुनिक गद्य साहित्य में एक नई चेतना लायी। उक्त उदबोधन महात्मा  गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में अतिथि लेखक, जाने-माने आलोचक विजय मोहन सिंह ने दिये। वे फ्रेंज़ काफ्का के जन्मदिवस के अवसर पर 03 जुलाई को एक साहित्यिक गोष्ठी के अवसर पर काफ्का के साहित्यिक अवदानविषय पर बोल रहे थे। इस अवसर पर प्रमुख रूप से प्रसिद्ध कथाकार संजीव, कुलसचिव के. जी. खामरे आदि मंचस्थ थे। डॉ. विजय मोहन सिंह ने काफ्का के साहित्य पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि काफ्का को मॉडर्न फिक्शन का जनक माना जाता है, यद्धपि काफ्का स्वयं को अत्यंत लघु और शुद्र मानते रहे, उन्हें आजन्म शुद्रता की तीव्र अनुभूति के ताप से गुजरना पड़ा। डॉ. सिंह ने काफ्का की तुलना और समानता अल्बेयर कामू से करते हुए कहा इन दोनों में आउटसाइडनेस  का बोध तीव्रता के साथ उपस्थित था। कामू की क्लासिक रचना आउटसाइडरएक उपन्यास है । डॉ. सिंह ने कहा कि सन 1923 में जिस समय नाजीवाद का लगभग कोई नामोनिशान नहीं था उस समय काफ्का की रचना दि कैसलका रूपक नाजी दौर की नरसंहारों, गेस्टापो, आतंक का पूर्वाभ्यास प्रस्तुत करती हुई कृति के रूप में आती है । वहीं दूसरी तरफ दि ट्रायलव्यवस्था के द्वारा एक निर्दोष को नाटकीय ट्रायल के बाद फाँसी देने के पीछे के सत्य का पर्दाफास करती  रचना है। काफ्का को दूनिया और स्वयं की व्यर्थता का गहरा बोध था। काफ्का अपनी समृद्धि से नफरत करते थे। वस्तुत: यह नफरत, पूंजीवाद से नफरत का प्रतीक थी । काफ्का को इसके बावजूद जीवन भर दोधारी तलवार पर चलना पड़ा, क्योंकि काफ्का को पूँजीवाद के विरोध के कारण अमेरिका अपना विरोधी मानता रहा। दूसरी तरफ मार्क्सवादियों ने उनका विरोध सतत बनाये रखा। जबकि रचना के स्तर पर काफ्का का प्रभाव अत्यंत ही गहरा थाजो चेतना के स्तर पर अपना असर दिखाती थी। अपनी रचनाओं के बल पर काफ्का आज भी हमारे भीतर मौजूद हैं और रहेंगे। यह उनकी सीमाविहीन प्रतिभा हीं थी कि अस्तित्ववाद जैसे वैचारिक एवं बौद्धिक आंदोलन के जन्म के मूल में फ्रेंज़ काफ्का का हाथ माना जाता है। डॉ. विजय मोहन सिंह ने काफ्का के साहित्य पर अध्ययन की आवश्यकता को रेखांकित किया और कहा कि काफ्का के साहित्य को पुन:अविष्कृत किए जाने की जरूरत है। काफ्का कैफेटेरीया की  इस गतिविधि को डॉ. विजय मोहन सिंह ने एक सुखद अनुभव बताया, साथ हीं साथ यह जोड़ा की शायद हीं कहीं आज काफ्का पर कोई लिखता, पढ़ता, बोलता हो ऐसे में यह साहित्यिक गोष्ठी एक रोमांचक एवं यादगार अनुभव है। प्रारंभ में सूरजप्रकाश (मुंबई) द्वारा प्रेषित पत्र का वाचन किया गया। अमरेंद्र शर्मा ने काफ्का के साहित्य पर संक्षिप्त रूप से प्रकाश डाला। कथाकार संजीव ने काफ्का के संदर्भ में अपना मंतव्य प्रस्तुत किया।
गोष्ठी का संचालन राकेश मिश्र ने किया एवं आभार डॉ. जयप्रकाश धूमकेतूने माना। इस अवसर पर श्रोताओं में राजकिशोर, डॉ. शरद जायसवाल, डॉ.रामानुज अस्थाना, डॉ. उमेश सिंह, डॉ. ललित किशोर शुक्ल, अमित राय, अशोक मिश्र, डॉ. अनिल पांडे, डॉ. अनवर अहमद सिद्दीकी, बी. एस. मिरगे, शिवप्रिय, अविचल गौतम आदि प्रमुखता से उपस्थित थे ।