बुधवार, 7 नवंबर 2012


कविता

आफरीन


अगर मैं मुस्कुरा पाती...
तो यकीनन तुम्हें निहाल कर देती...
अपनी किलकारी से...

चल पाती...तो..
तुम्हारी उंगली थाम..    
निकल पडती...
देखने को सारी दुनिया

अगर मै बोल पाती
तो पूछती तुम से.. 
मेरा गुनाह...??

अपनी तोतली जबान से ही सही, पर....
कहती जरुर
मत करो मुझ पर इतना जुल्म

अपनी नन्हीं हथेलियों को जोड़...   
मांग लेती तुमसे
जिन्दगी की भीख... 

शायद मेरे मुंह सें.. 
बाबा‘...सुन कर.. 
कुछ पसीज जाता तुम्हारा मन

पर तुमने मौका ही नहीं दिया मुझे... 
मेरे हिस्से की किलकारियां.. 
मेरे हिस्से की शरारतें.. 
मेरे हिस्से की साँसे... 
सब छीन ली मुझसे... 

चलो अच्छा ही हुआ.. 
मै खामोश ही भली... 
कहती भी क्या उस दुनिया से.. 
जो सिर्फ बेटों की आवाज सुनती है... 

क्या देखना उस दुनिया को... 
जहां बेटीहोने की सजा... 
हर कदम पर भुगतनी पडती है.. 

पर ये जान लो तुम... 
मै मुस्कुरा अब भी रही हॅू 
हस रही हूँ मै... तुम पर... 
तुम्हारे जैसे दूसरो पर... 
तुम्हारी सोच पर...
खुदा तुम्हें,  माफ करे...

सुरेश कुमार

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें