मंगलवार, 6 नवंबर 2012


नौवां विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन जोहान्‍सबर्ग में संपन्‍न
कहते हैं कि संसार की प्रकृति भाषाई है। भाषा द्वारा रचित पृथ्‍वी से भी बड़े जिस संसार में हम रहते हैं वही मनुष्‍यता के ज्ञान और यथार्थ का स्रोत है। वर्तमान सभ्‍यता के जिस मुकाम पर हम खड़े हैं वहां असंख्‍य भाषा, भाषाई वर्चस्‍व और उसकी अस्मिता की टकराहटें भी हैं, साथ ही मनुष्‍यता के मूल्‍यों का संतुलन भी। साम्राज्‍यवादी और नवसाम्राज्‍यवादी दौर में भाषा तीसरी दुनिया के उपमहाद्वीपीय जनसंख्‍या के सशक्तिकरण और स्‍वतंत्रता/मुक्ति का माध्‍यम बना है। इन्‍हीं वजहों से भारत के स्‍वाबलंबन का सपना देखनेवालों ने हिंदी (अगर वीकिपीडिया को मानें तो यह दुनिया में सबसे अधिक बोली जाने वाली चौथी भाषा है। अवधी, भोजपुरी, मैथिली आदि बोलियों की संख्‍याओं को जोड़ दें तो यह दूसरे स्‍थान पर आ जाएगी।) को, अपना उचित स्‍थान दिलाने का बीड़ा उठाया था सन् 1975 में नागपुर के प्रथम विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन में और 2012 में इसका नौवां पड़ाव जोहांसबर्ग (दक्षिण अफ्रीका) में संपन्‍न हुआ। तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने प्रथम विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन के नागपुर अधिवेशन में विश्‍व कवि रवीन्‍द्र नाथ ठाकुर को उद्धृत करते हुए कहा था कि ‘‘भारतीय भाषाएं नदियां हैं और हिंदी महानदी। हिंदी में यदि और नदियों का पानी आना बंद हो जाए तो हिंदी स्‍वयं सूख जाएगी और ये नदियां भी भरी-पूरी नहीं रह सकेंगी।’’
       9वें विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन के लिए दक्षिण अफ्रीका का चयन इस मायने में महत्‍व रखता है कि प्रथमत: हिंदी को राष्‍ट्रभाषा घोषित करने का श्रेय जिन महात्‍मा गांधी को जाता है, उनके लिए दक्षिण अफ्रीका और नागपुर (वर्धा) दोनों ही प्रयोग भूमि रही और, द्वितीयत: आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व भारतवंशी गिरमिटिया मजूर बन कर बाहर जाने को अभिशप्‍त हुए थे, उनका एक पड़ाव दक्षिण अफ्रीका भी था जहां आज भी तकरीबन 15 लाख भारतवंशी रहते हैं। महात्‍मा गांधी और उनकी विचारधारा से प्रभावित दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्‍ट्रपति डॉ.नेल्‍सन मंडेला ने विश्‍वशांति, अहिंसा, समता और न्‍याय पर आधारित ठोस कार्यक्रमों के आधार पर रंगभेद और औपनिवेशिक ताकतों के विरूद्ध एक लंबी लड़ाई लड़ी थी। इसीलिए ‘‘भाषा की अस्मिता और हिंदी के वैश्विक संदर्भ’’ पर केंद्रित सम्‍मेलन के सारे सत्र इन दोनों महापुरूषों के आदर्शों से अनुप्राणित विषयों पर रखे गए थे। स्‍थान था नेल्‍सन मंडेला चौक का सैंडटन कन्‍वेंशन सेंटर’, जोहांसबर्ग-जिसे गांधी ग्राम का नाम दिया गया और सभास्‍थल का नाम था-नेल्‍सन मंडेला सभागार। साहित्‍य भाषा का सांस्‍कृतिक परिसर है। लेकिन जीने के लिए रोजगार चाहिए। तकनीकी अभिज्ञान और नये दबावों ने आज के बहुभाषिक विश्‍व में भाषा के प्रति हमारी धारणा को अधिक व्‍यावहारिक और उदार बनाया है।
       22 सितम्‍बर, 2012 को गांधीग्राम, जोहांसबर्ग के नेल्‍सन मंडेला सभागार में दुनियाभर से आगत हिंदी प्रेमियों एवं हिंदी सेवियों से भरे सभागार में सम्‍मेलन का गरिमामय शुभारंभ हुआ। उद्घाटन समारोह की अध्‍यक्षता भारत की विदेश राज्‍यमंत्री श्रीमती प्रनीत कौर ने की। स्‍वागत भाषण में भारत के उच्‍चायुक्‍त वीरेन्‍द्र गुप्‍ता ने कहा कि भारत ने दक्षिण अफ्रीका में बैरिस्‍टर मोहनदास करमचंद गांधी को भेजा था और दक्षिण अफ्रीका ने उन्‍हें महात्‍मा गांधी बनाकर भारत भेजा। उन्‍होंने क‍हा कि विश्‍व हिंदी सम्‍मेलनों ने हिंदी भाषा की बहुआयामिता को विश्‍व पटल पर रखने का काम किया है। युवाओं को हिंदी से जोड़ना हमारी सबसे पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। हमारा यह भी प्रयास होना चाहिए कि हिंदी को अपने देश में सही स्‍थान दिलाएं।
       इस दौरान क्रम-क्रम से मंचस्‍थ अतिथियों द्वारा रवीन्‍द्र कालिया द्वारा संपादित विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन स्‍मारिका’, राकेश पाण्‍डेय द्वारा संपादित प्रवासी संसार विशेषांक विश्‍व हिंदी और गांधी तथा अशोक राजुरिया व अमित माथुर द्वारा संपादित पत्रिका गगनांचल विशेषांक का विमोचन भी किया गया। हिंदी शिक्षा संघ, दक्षिण अफ्रीका की अध्‍यक्ष मालती रामबली ने दोनों देशों के परस्‍पर आदान-प्रदान, सहयोग और विकास के अवसरों के बढ़ने के संबंध में आशा जतायी कि इस सम्‍मेलन के आयोजन के बाद द.अ‍फ्रीका की सरकार हिंदी को नयी दृष्टि से देखेगी। विदेश मंत्रालय के सचिव एम.गणपत ने भारतेन्‍दु की निज भाषा उन्‍नति अहे को याद करते हुए कहा कि हम अपने कामकाज और जीवन में हिंदी को महत्‍व दें, तभी सम्‍मेलन का उद्देश्‍य सार्थक होगा। राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी की पौत्री इला गांधी ने कहा कि भाषा, सूचना, अनुभव, राष्‍ट्र के दर्शन जीवन और संस्‍कृति को संप्रेषित करती हैं। उन्‍होंने अनुवाद की जगह मूल भाषा पर बल दिया। (श्रोता हैरत में थे कि राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी ने हिंदी को राष्‍ट्रभाषा बनाने में अग्रणी भूमिका निभायी उन्‍हीं की पौत्री अंग्रेजी में बोली, हालांकि इसके लिए उन्‍होंने खेद भी जताया था)।
संसदीय राजभाषा समिति के पूर्व उपाध्‍यक्ष एवं संचालन समिति के अध्‍यक्ष व सांसद सत्‍यव्रत चतुर्वेदी ने कहा कि हिंदी, गांधी और दक्षिण अफ्रीका-तीनों में गहरा तादात्‍म्‍य है। भारत में अंग्रेजी के बिना विकास संभव नहीं- यह अवधारणा निर्मूल है। जिन लोगों के कंधों पर हिंदी मजबूत करने का दायित्‍व है, उन्‍हें आत्‍म निरीक्षण करना चाहिए। दक्षिण अफ्रीका के उपविदेश मंत्री मारियस फ्रांसमन बोले, दक्षिण अफ्रीका में बहुत से हिंदी भाषी अर्से से रहते हैं। हमारी चिंता यह है कि द.अफ्रीका में शांति और विकास कैसे हो। भाषा इसमें हमें काफी मदद कर सकती है। मॉरीशस के प्रतिनिधि मंडल के अध्‍यक्ष तथा कला एवं संस्‍कृति मंत्री मुकेश्‍वर चुनी ने कहा कि मॉरीशस में 70 प्रतिशत से ज्‍यादा लोग हिंदी बोलते हैं जबकि वहां अन्‍य भारतीय भाषाओं के विकास को भी अवसर दिये जा रहे हैं। उन्‍होंने बहुत ही आत्‍मीय लहजे में कहा कि हिंदी बोलने से अपनापन महसूस होता है। भारत की विदेश राज्‍यमंत्री प्रनीत कौर ने कहा कि दक्षिण अफ्रीका हमारे लिए एक तीर्थस्‍थल की तरह है। उन्‍होंने विश्‍व हिंदी सम्‍मेलनों के इतिहास एवं उपलब्धियों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि हिंदी को संयुक्‍त राष्‍ट्र की आधिकारिक भाषा बनने का अधिकार बनता है। मुख्‍य अतिथि के रूप में दक्षिण अफ्रीका के वित्‍त मंत्री प्रवीन गोर्धन ने हिंदी भाषा में अतिथियों का अभिनन्‍दन करते हुए बताया कि दक्षिण अफ्रीका में हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के विकास हेतु अनेक सरकारी प्रयास किये जा रहे हैं।
सम्‍मेलन के प्रथम दिन ज्ञान कक्ष में लोकतंत्र और मीडिया की भाषा के रूप में हिंदी विषय पर आयोजित सत्र की अध्‍यक्षता करते हुए वरिष्‍ठ कथाकार हिमांशु जोशी ने इस बात की ओर इशारा किया कि भाषा का संबंध अभिव्‍यक्ति से है। आज हिंदी बिडम्‍बनाओं की भाषा बनकर रह गई। लिपि का द्वन्‍द्व भी काफी गंभीर है। बीज वक्‍तव्‍य दिनेश शर्मा द्वारा दिया गया। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के देव प्रकाश मिश्र का कहना था कि मीडिया का भाषा के साथ आत्‍मीय संबंध होता है। हिंदी में वह सारी क्षमता है जिससे एक मजबूत लोकतंत्र की स्‍थापना हो सके। बैंक ऑफ बड़ौदा के मुख्‍य प्रबंधक सुरेश चुनवानी ने कहा कि मीडिया और राजनीति का चोली-दामन का संबंध है। कोलकाता विश्‍वविद्यालय के प्रो.राम आल्‍हाद चौधरी का मानना था कि लोकतंत्र को मजबूत करने और मीडिया को प्रसारित करने में हिंदी की सार्थक भूमिका है।  माखन लाल चतुर्वेदी राष्‍ट्रीय पत्रकारिता विश्‍वविद्यालय, भोपाल के कुलपति प्रो.बी.के.कुठियाला, डॉ.जवाहर कर्नावट, गोवा विश्‍वविद्यालय के अधिष्‍ठाता डॉ.रवीन्‍द्र मिश्र, दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के डॉ.कमल कुमार, जामिया मिल्लिया इस्‍लामिया विश्‍वविद्यालय, नई दिल्‍ली के प्रो.अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह, वर्धा विश्‍वविद्यालय के शोधार्थी बच्‍चा बाबू और डॉ.राजनारायण शुक्‍ल आदि की सक्रिय सहभागिता से सत्र जीवन्‍त बना रहा।
हिंदी भाषा की सूचना प्रौद्योगिकी और तकनीकी विकास का सत्र नीति कक्ष में आयोजित था। विशिष्‍ट अतिथि के रूप में सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह का कहना था कि भाषा में एकरूपता हो और उसके प्रसार के लिए आम आदमी को ध्‍यान में रखकर सहज तकनीकी उपकरण विकसित किए जाने की जरूरत है। बीज वक्‍तव्‍य देते हुए डॉ.ओम विकास ने कहा कि भाषा विषयक मानकीकरण में पाणिनी सारिणी को ध्‍यान में रखा जाना चाहिए। उन्‍होंने यूनिकोड के बाद फोनीकोड पर कार्य करने की जरूरत पर बल दिया। महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा के एसोसिएट प्रोफेसर जगदीप सिंह दांगी ने अपने द्वारा विकसित सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी विविध उपकरणों, यथा- हिंदी वर्तनी परीक्षक की खूबियों के बारे में विशेष जानकारी दी। साथ ही उन्‍होंने प्रखर देवनागरी फॉन्‍ट परिवर्तन, यूनीदेव, शब्‍द ज्ञान, प्रसार देवनागरी लिपि, प्रलेख देवनागरिक लिपिक, आई ब्राउजर शब्‍द अनुवाद आदि की विशद जानकारी देते हुए उनका डिमॉन्‍स्‍ट्रेशन भी प्रस्‍तुत किया। भाषाविद् परमानन्‍द पांचाल तथा सी-डैक के महेश कुलकर्णी ने संस्‍थान द्वारा विकसित उपकरणों के बारे में जानकारी दी। इस शानदार सत्र के अध्‍यक्ष थे-केंद्रीय हिंदी संस्‍थान, आगरा के उपाध्‍यक्ष अशोक चक्रधर। संचालन बालेन्‍दु दाधिच ने किया।
महात्‍मा गांधी की भाषा दृष्टि और वर्तमान संदर्भ विषय पर सत्र आयोजित था-शांति कक्ष में। अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य  में महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि सरकारी फाइलों पर चलने वाली भाषा कभी भी जन साधारण की भाषा नहीं बन पाती। भाषा से ही राजा का जनता से रिश्‍ता कायम होता है। हमें लिपि के चक्‍कर में नहीं पड़ना चाहिए बल्कि दूसरी भाषाओं के प्रति उदार होकर गांधी जी की हिन्‍दुस्‍तानी को अपनाना चाहिए। बीज वक्‍तव्‍य में आलोचक कृष्‍णदत्‍त पालीवाल ने कहा कि गांधीजी का चिंतन परंपरागत होते हुए भी क्रांतिकारी चिंतन है। गांधीजी हिंदी को संगमों की और भारतीय भाषाओं को जोड़नेवाली भाषा मानते थे। देश की सांस्‍कृतिक अस्मिता, पुरानी जातीय स्‍मृति के सबसे बड़े चिह्न भारतीयता से आकर जुड़ते हैं। वरिष्‍ठ पत्रकार मधुकर उपाध्‍याय ने हिंदी समाज की खामियों पर बोलते हुए कहा कि हमने अपनी बोलियों और उर्दू से एक तरह से किनारा कर लिया है। इस संदर्भ में उन्‍होंने नाथूराम शर्मा की अजबकरा कविता का संदर्भ देते हुए हिंदी की समावेशिकता का जिक्र किया जिसमें हिंदी की बहुत सी बोलियों, बारहखड़ी और हिंदू-मुस्लिम त्‍यौहारों का उल्‍लेख मिलता है। आलोचक डॉ.विजय बहादुर सिंह का कहना था कि᚞ गांधीजी नई पीढ़ी के लिए भले ही बीते दिनों की चीज हों पर उन्‍हें नहीं भूलना चाहिए कि वे इस देश की आत्‍मा के पर्याय थे। वे हिंदुस्‍तानी के माध्‍यम से हिंदुओं व मुसलमानों को एकता के सूत्र में बांधना चाहते हैं। सवाल राष्‍ट्रभाषा का है, हिंदी का नहीं। गांधीवादी विचारक प्रो.नंद‍किशोर आचार्य ने माना कि अंग्रेजी हमारे सांस्‍कृतिक मूल्‍यों को भी तेजी से नष्‍ट कर रही है। वह हिंसा का प्रसार कर रही है और हमें अपनों से काट रही है। गांधी की अहिंसा दृष्टि ही भाषिक विचारों में परिलक्षित होती है। यह सत्र प्रो.रामभजन सीताराम, डॉ.निर्मला जैन, मधु गोस्‍वामी व अन्‍य विद्वत वक्‍ताओं ने अंशग्रहण किया।
लोकतंत्र और मीडिया की भाषा के रूप में हिंदी का सत्र अहिंसा कक्ष में आयोजित हुआ। अध्‍यक्ष थे-हिन्‍दुस्‍तान के समूह संपादक शशि शेखर तथा विशिष्‍ट अतिथि के रूप में मौजूद थे-पूर्वमंत्री व सांसद मणिशंकर अय्यर। शशि शेखर ने कहा कि भविष्‍यवाणी की गई है कि 2043 में संसार का आखिरी अखबार छपेगा। हम जो अखबार निकालते हैं उसका रेवन्‍यू–मॉडल क्‍या है? कुल मिलाकर हम कारपोरेट विज्ञापनदाताओं या मुख्‍यमंत्रियों पर निर्भर हैं। मगर चिंताओं का होना यह बताता है कि कोई न कोई रास्‍ता निकलेगा। नया ज्ञानोदय के संपादक रवीन्‍द्र कालिया ने बीज वक्‍तव्‍य में कहा कि आज हिंदी के नाम पर जो शब्‍द बन रहे हैं वे और भी खतरनाक साबित हो रहे हैं- पहले पारिभाषिक, फिर आकाशवाणी के शब्‍द। हिंदी को पानी की तरह बहने देना चाहिए। दूसरी भाषाओं के प्रति शत्रुता का भाव नहीं होना चाहिए। बोलियों की मजबूती से नहीं डरना चाहिए इनसे हिंदी खुद मजबूत होगी। आलोचक प्रो.शंभुनाथ ने पेड न्‍यूज के बहाने सवाल उठाया कि लोकतंत्र के खंभों का स्‍थान बाजार के खंभे क्‍यों लेते जा रहे हैं? कमलेश जैन ने न्‍यायपालिका में हिंदी की जगह अंग्रेजी में कार्य होने से उत्‍पन्‍न दिक्‍कतों का हवाला दिया। कथाकार अखिलेश ने कहा कि जब भी भारत में लोकतांत्रिक मूल्‍य नष्‍ट हुए, हिंदी की चेतना उसके प्रतिपक्ष में खड़ी हुई। टीवी पत्रकार कुरबान अली ने कहा कि आजादी के बाद गांधी के शिष्‍यों ने सबसे पहले उनके हिन्‍दुस्‍तानी विषयक विचारों को खत्‍म करने का काम किया। दक्षिण अफ्रीका के फकीर हसन ने माना कि यहां हिंदी फिल्‍मों व गानों की लोकप्रियता सर्वाधिक है। विशिष्‍ट अतिथि मणिशंकर अय्यर ने विस्‍तार से हिंदी और प्रांतीय भाषाओं के बारे में अपनी बात रखते हुए कहा कि हिंदी स्‍वयं ही अपनी जगह बनाएगी। माधव कौशिक और राकेश तिवारी ने भी विमर्श में अंशग्रहण किया। अहिंसा कक्ष का यह सत्र सांसदों, पत्रकारों से खचाखच भरा हुआ था। सत्र का संचालन करते हुए कथाकार संजीव ने ब्रिटिश गुयाना से आये हुए एक अप्रवासी परिवार के बहाने वहां विलुप्‍त हो रही हिंदी को बचाने के लिए हिंदी शिक्षक भिजवाने और 1979 की कोठारी कमीशन की संस्‍तुतियों को अनदेखा कर अभिक्षमता परीक्षण के बहाने सिविल सेवाओं में अंग्रेजी अनिवार्य करने के फलस्‍वरूप ग्रामीण प्रतिनिधित्‍व 36.47 से घट कर 29.55 प्रतिशत हो जाने के दुष्‍परिणाम से सावधान किया।
न्‍याय कक्ष में सूचना प्रौद्योगिकी : देवनागरी लिपि और हिंदी का सामर्थ्‍य विषय पर वक्‍ताओं ने विचार व्‍यक्‍त किये। अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में सी.ई. जिनी ने कहा कि 21 वीं सदी को सूचना प्रौद्योगिकी का युग माना जाता है। ज्ञान के क्षेत्र में हमें अपने आप को तैयार करने की जरूरत है। उन्होंने आशा जताते हुए कहा कि हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है, लेकिन हमें हिंदी को प्रौद्योगिकी के अनुरूप ढ़ालना होगा तभी विश्व में हिंदी संपर्क भाषा के रूप में उभर सकेगी। सत्र में पवन जैन, प्रो.वशिनी शर्मा, वर्षा डिसूजा, घनश्याम दास, डॉ.सुभाषा तुकाराम तालेकर, डॉ.अनीता विजय ठक्कर, रूबी अरूण, सिंधू टी.आई., डॉ.शशिकला पांडे, डॉ.जसवीर सिंह चावला, अशोक कुमार बिल्लूरे, डॉ.पवन अग्रवाल, डॉ.प्रणव शर्मा, डॉ.शंभु बाबे प्रभु देसाई, शिवा श्रीवास्तव, दोव्बन्या कतेरीना, नीलम गाबा, राम विचार यादव, डॉ.राजेन्द्र प्रसाद पाण्डेय, माधुरी छेड़ा, वासंती वैद्य की सक्रिय भागीदारी रही। परमाणु ऊर्जा विभाग के संयुक्‍त सचिव के.ए.पी.सिन्‍हा ने सत्र का संचालन किया।
नीति कक्ष में आयोजन का विषय था- ज्ञान-विज्ञान और रोजगार की भाषा के रूप में हिंदी। बीज वक्‍तव्‍य में कथाकार चित्रा मुदगल ने कहा कि हिंदी सेवियों और भारतवंशियों की वजह से हिंदी विश्‍व पटल पर स्‍थापित हुईं। हिंदी की देवनागरी लिपि‍ की संप्रेषणीयता और वैज्ञानिकता पर आस्‍था प्रकट करते हुए उन्‍होंने बताया कि चीन में भी कुछ विद्वान मंदारिन लिपि की जटिलता के कारण देवनागरी लिपि अपनाये जाने की मांग कर रहे हैं। कथाकार ममता कालिया ने कहा कि हिंदी में प्रारंभ से ही विश्‍वभाषा बनने की सामर्थ्‍य रही है, सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों के फलस्‍वरूप अब स्थिति यह है कि ज्ञान-विज्ञान का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहां हिंदी का प्रयोग नहीं हो रहा है। सत्र के विशिष्‍ट अतिथि सांसद निनोंग इरीम ने कहा कि जब अपनी भाषा अपनाकर दक्षिण कोरिया और जापान जैसे देश प्रगति कर सकते हैं तो हम क्‍यों नहीं। हममें वांछित इच्‍छाशक्ति और स्‍वाभिमान होना चाहिए। कवि उपेन्‍द्र कुमार ने चुटकी ली कि जब हमारा आचरण नकली होगा तो भाषा भी नकली होती जाएगी। हिंदी क्षेत्र ने त्रिभाषा फार्मूला के साथ न्‍याय नहीं किया। वक्‍त आ गया है कि हमें अधिक उदारता का परिचय देते हुए बाधाओं को पार करना चाहिए। दक्षिण भारत के विद्वान मो‍हम्‍मद कुंजू मथारू ने कहा कि इच्‍छा शक्ति के बिना हिंदी का विस्‍तार संभव नहीं है। हैदराबाद के प्रो.आर.एस.सर्राजु ने कहा कि हिंदी शुरू से ही रोजगार की भाषा रही है। दक्षिण अफ्रीका की शिवा श्रीवास्‍तव का मानना था कि दक्षिण अफ्रीका में हिंदी का निरंतर प्रसार हो रहा है, लेकिन अपने अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में प्रो.जाबिर हुसैन ने अपने देश के शीर्ष वैज्ञानिक एवं तकनीकी संस्‍थानों में हिंदी में काम-काज की स्थिति पर असंतोष जताते हुए कहा कि इन संस्‍थानों में हिंदी में काम-काज करने की प्रवृत्ति को निरंतर बढ़ावा दिया जाना चाहिए। अनेकानेक विशिष्‍ट अतिथियों से भरे इस सत्र का संचालन कथाकार मुहम्‍मद आरिफ ने किया।
शांति कक्ष में हिंदी के विकास में प्रवासी लेखकों की भूमिकाविषय पर आधारित सत्र की अध्यक्षता साहित्‍यकार गोपेश्वर सिंह ने की। इस अवसर पर सांसद किशन भाई पटेल बतौर विशिष्ट अतिथि मंचस्थ थे। बीज वक्तव्य में आलोचक भारत भारद्वाज ने कहा कि आधुनिक हिंदी से तात्पर्य उस हिंदी से है जिसका प्रादुर्भाव 1857ई. की क्रांति से होता है। राकेश पांडेय, दिनेश कुमार शुक्ल, डॉ.उषा देसाई, डॉ.केदार मंडल, डॉ.शंभू गुप्त, एवं डॉ.सोमा बंदोपाध्याय ने अपने शोध-पत्र प्रस्‍तुत किए। संचालन साहित्‍यकार डॉ.कमल किशोर गोयनका ने किया। अध्यक्षीय वक्तव्य में डॉ.गोपेश्वर सिंह ने कहा कि जार्ज गियर्सन एवं फादर कामिल बुल्के के हिंदी समर्पण को नकारा नहीं जा सकता। उन्होंने कहा कि अभिमन्यु अनत एवं तेजेन्द्र शर्मा की लेखनी भी प्रवासी साहित्य को समृद्ध करता है। इस अवसर वर्धा विश्‍वविद्यालय के प्रो.शंभू गुप्त ने कहा कि विदेशों में आज हिंदी, हिंदू या हिन्दुत्व का प्रतीक बन गया है, जिसे लेकर एक असुरक्षा बोध है। डॉ.कमल किशोर गोयनका ने कहा कि मॉरीशस के कथाकार अभिमन्यु अनत के उपन्‍यास लाल पसीना ने प्रवासी साहित्य को नई ऊंचाईयां दी। उन्होंने वहां के गिरमिटिया मजदूरों को पहचान दिलाई। 1935ई. में हस्तलिखित पत्रिका दुर्गा का प्रकाशन किया गया। इसलिए मैं इस बात से संतुष्ट हूं कि प्रवासी साहित्य समृद्ध हुआ है। सत्र के दौरान के नवीन चंद लोहानी, हरि मिश्र, सरिता बूधू, डॉ.इन्द्रनाथ चौधुरी, प्रो.वीरेन्द्र नारायण यादव, श्री जोशी, महीप सिंह, पूनम सिंह, डॉ.कमल कुमार, डॉ.यशोधरा, कमल बंसल, डॉ.हरि सुमन बिष्ट, प्रो.उषा कुमारी ने भी अपनी बात रखी।
       समांतर सत्र न्‍याय कक्ष में आयोजित था। अध्‍यक्षता कर रहे थे-अमेरिका के हिंदी विद्वान वेद प्रकाश बटुक और बीज वक्‍तव्‍य पेश कर रहे थे-रूसी हिंदी विद्वान सर्गे सेरेब्रियानी, जिन्‍होंने रूसी साहित्‍य के इतिहास में प्रवासी लेखकों के योगदान के बहाने विषय को विस्‍तार दिया। कवयित्री जय वर्मा ने अपनी पीड़ा व्‍यक्‍त करते हुए उदाहरणों के साथ बताया कि प्रवासी मन की व्‍यथा प्रवास में रह कर ही जानी जाती है। फिजी से आये शैलेश कुमार ने प्रवासी साहित्‍य की समृद्धि में फीजी लेखकों की भूमिका को रेखांकित किया। गुवाहाटी से आए रफीकुल हक ने हिंदी के विकास में विदेशी लेखकों के दाय तथा लखनऊ के प्रो.कालीचरण स्‍नेही ने साहित्‍य में भारतवंशियों की विशिष्‍ट प‍हचान कर प्रकाश डाला तो लखनऊ की ही कैलाश देवी सिंह ने अमेरिका की हिंदी सेवी संस्‍थाओं और पत्रिकाओं से परिचय कराया। डॉ.प्रदीप दीक्षित, डॉ.केदार सिंह, डॉ.के.सीतालक्ष्‍मी तुर्की, डॉ.यज्ञ प्रसाद तिवारी, गुयाना की वर्शिनी सिंह, मनोज कुमार वर्मा, जैतराम सोनी और जर्मनी के बारबरा लाट्ज आदि के वक्‍तव्‍यों और प्रपत्रों ने प्रवासी लेखन के विविध पहलुओं से परिचय कराया। अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में वेद प्रकाश बटुक ने कहा कि हिंदी हम प्रवासियों की वजह से नहीं, वरन् हिंदी की वजह से हम प्रवासी हैं। हमें उदार बनना होगा। सत्र का संचालन प्रो.नवीन लोहानी ने किया।
जापान की तोमोको किकुचि और गिरिजा शंकर त्रिवेदी की अध्‍यक्षता में ज्ञान कक्ष में हिंदी के प्रसार में अनुवाद की भूमिका पर चर्चा हुई। संचालक की भूमिका में थे- साहित्‍यकार प्रो.गंगा प्रसाद विमल। बालकवि वैरागी ने विभिन्‍न प्रकार की समस्‍याओं को सोदाहरण प्रस्‍तुत करते हुए इस कार्य के लिए एक पूर्णकालिक विश्‍वविद्यालय की जरूरत पर बल दिया। मिजोरम विश्‍वविद्यालय की हिंदी अधिकारी वंदना भारती ने हिंदी के प्रसार में अनुवाद की भूमिका विषय पर विमर्श करते हुए कहा कि कबीर के साखी का अनुवाद अंग्रेजी में हुआ है। सुखदेव सिंह और लिंडा हेस ने कबीर के साखी का अनुवाद किया है। अनेक भारतीय साहित्‍य का अनुवाद रूसी भाषा में भी हुआ है। प्रेमचंद के गोदान और रंगभूमि’, यशपाल का झूठा सच और दिव्‍या’, अमृतलाल नागर का बूँद और समुद्र तथा अमृत और विष’, रांगेय राघव का मुर्दों का टीला और कब तक पुकारूँ फणीश्‍वर नाथ रेणु का मैला आंचल आदि उपन्‍यास रूसी भाषा में अनुदित हुए हैं। चेक भाषा औदोलन स्‍मैकल ने प्रेमचंद के गोदान का अनुवाद 1957 में किया। प्रो.सुशील कुमार शर्मा ने कहा कि अनुवाद के सहारे ही हम वसुधैव कुटुम्‍बकम को चरितार्थ कर सकते हैं जबकि अश्विनी कुमार सिंह ने कहा अनुवाद के अंदर स्‍त्रोत भाषा और लक्ष्‍य भाषा दोनों की बारीकियों की गहरी समझ होनी चाहिए। वर्धा विश्‍वविद्यालय के शोधार्थी ओम प्रकाश प्रजापति ने मशीनी अनुवाद की सीमाओं और संभावनाओं पर विस्‍तार से प्रकाश डाला। उन्‍होंने कहा कि᚞ भाषिक भूमंडलीकरण समाज भाषाविज्ञान का क्षेत्र है, जिसमें विश्व स्तर पर भाषा के प्रसार, परिवर्तन और प्रयोग का विवेचन होता है। अतः भाषिक भूमंडलीकरण के संदर्भ में हिंदी की भाषिक प्रक्रिया अन्य भाषाओं की अपेक्षा अधिक स्पष्ट दिखाई देती है। भाषिक भूमंडलीकरण, भूमंडलीकरण से ही संभव हुआ है। अनुवाद की वैश्विक भूमिका पर कथाकार डॉ.अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह समेत कई विद्वानों ने विशद चर्चा की। अपने अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में तोमोको किकुचि ने अनुवाद के क्षेत्र में हो रहे कार्यों की सराहना की।
भोजनोपरांत इसी विषय पर प्रो.गंगा प्रसाद विमल की अध्‍यक्षता में दोबारा चर्चा शुरू हुई जिसमें डॉ.इन्‍द्रनाथ चौधरी ने बीज वक्‍तव्‍य दिया और विशिष्‍ट अतिथि थे-डॉ.कैलाश चन्‍द्र पंत।
भाषा की अस्मिता और हिंदी का वैश्विक संदर्भ-यह केंद्रीय विषय था न्‍याय कक्ष में आयोजित प्रथम सत्र का। बीज वक्‍तव्‍य देते हुए कमल किशोर गोयनका ने कहा कि गांधीजी ने भाषा के प्रश्‍न को स्‍वराज से जोड़ा था, उस राष्‍ट्रवादी दृष्टि का आज नितांत अभाव है। डॉ.सुशीला गुप्‍ता ने कहा कि 22 भारतीय भाषाओं को जोड़कर हिन्‍दुस्‍तानी का रूप निर्मित किया जाय, जो गांधीजी चाहते थे। डॉ.आशीष कुमार ने प्रकारांतर से इसका समर्थन किया जबकि तेलुगु भाषी प्रो.शेख, मो. इकबाल ने सरकार द्वारा बोलियों को भाषा का दर्जा देने की बात पर चिंता जताई। फिजी की डॉ.इन्‍दु चंद्रा ने कहा कि हिंदी सीखना एक राष्‍ट्रधर्म है तो मलेशिया के डॉ.योगेन्‍द्र प्रताप सिंह ने कहा कि हिंदी संस्‍कृतनिष्‍ठ नहीं होनी चाहिए। दक्षिण अफ्रीका की विजय लक्ष्‍मी कोसांगा का मत था कि स्‍वदेशी भाषा के साथ विदेशी भाषा का भी सम्‍मान हो। प्रो.रामकिशोर, डॉ.नृपेन्‍द्र प्रसाद मोदी, राष्‍ट्रभाषा प्रचार समिति के प्रधान मंत्री प्रा.अनंत राम त्रिपाठी, डॉ.सुभाष चंद्र शर्मा, दिलीप कुमार मर्धा (असम), डॉ.वीरेन्‍द्र नारायण यादव और प्रो.अमरनाथ- सभी ने गांधी जी की भाषा दृष्टि का समर्थन किया। अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में सांसद रमेश वैस ने कहा कि आज विडंबना यह है कि अंग्रेजी हमारे दिमाग पर हावी हो गई है।
एक अकादमिक सत्र अफ्रीका में हिंदी शिक्षण-युवाओं का योगदान पर भी आयोजित था। विशिष्‍ट अतिथि थे सांसद श्री रघुनंदन शर्मा, अध्‍यक्ष डॉ.विमलेश कांति वर्मा जिसमें मॉरीशस की सरिता बुधू, सत्‍यदेव टेंगर और नारायण कुमार ने आलेख प्रस्‍तुत किए। बीज वक्‍तव्‍य प्रदान करते हुए दक्षिण अफ्रीका की मालती रामबली ने द.अफ्रीका में हिंदी की दशा-दिशा से अवगत कराते हुए कहा कि हम सब भारत से जुड़े हुए हैं। हिंदी सीखना हमारा अधिकार है और हमें इस सम्‍मेलन के माध्‍यम से हिंदी को युवाओं तक पहुंचाना है। श्री रघुनंदन शर्मा ने कहा कि यदि हम पूर्ण स्‍वाधीनता की कामना करते हैं तो अंग्रेजी को हटाना होगा। नारायण कुमार ने कहा कि भवानी दयाल सन्‍यासी ने दक्षिण अफ्रीका में हिंदी की नींव रखी। डॉ.विमलेश कांति वर्मा ने अध्‍यक्षीय भाषण में स्‍वीकारा कि आज हिंदी के सामने कई चुनौतियां हैं, पाठ्यक्रम मानक न होने से हिंदी शिक्षा प्रभावित हो रही है। चिंतन और विश्‍लेषण के जरिये हल निकाले जाने चाहिए।
हिंदी-फिल्‍म, रंगमंच और मंच की भाषा सत्र की अध्‍यक्षता बालकवि बैरागी ने की। बीज वक्‍तव्‍य पेश करते हुए प्रख्‍यात रंगकर्मी उषा गांगुली ने कहा कि आज रंगमंच के बदलते वैश्विक परिदृश्‍य में नई भाषा की खोज करनी होगी। इस सत्र में डॉ.कुसुम अंसल, डॉ.नीलम राठी, डॉ.भारती हिरेमठ, डॉ.मुजावर सरदार हुसैन, डॉ.राजलक्ष्‍मी शिवहरे तथा डॉ.ओमप्रकाश भारती के शोध-आलेखों समेत 26 प्रपत्र पढ़े गए। डॉ.हुसैन ने कहा कि हिंदी फिल्‍म की भाषा दुनिया को आकर्षित कर रही है तो डॉ.भारती ने रंगमंचीय भाषा की नई ऊर्जा की आवश्‍यकता पर बल दिया।
समारोह में एक सत्र विदेश में भारतीय : भारतीय ग्रंथों की भूमिका पर था। अध्‍यक्ष थे-डॉ.रत्‍नाकर पांडेय, विशिष्‍ट अतिथि-सांसद डॉ.प्रसन्‍न कुमार पाठसानी। बीज वक्‍तव्‍य में नरेन्‍द्र कोहली ने कहा कि गिरमिटिया के रूप में जब भारतीयों को इन देशों में ले जाया गया तो यहां से आस्‍था लेकर गये थे। वही उनकी अस्मिता और संस्‍कृति को जिंदा रखे हुए थे। अब नवीनतम टेक्‍नोक्रैट पीढ़ी की अपेक्षाओं पर हमें चाहिए कि हम उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरें। अपने अध्‍यक्षीय वक्‍तव्‍य में डॉ.रत्‍नाकर पांडेय ने पब्लिक सर्विस कमीशन में अंग्रेजी की अनिवार्यता पर सवाल उठाया। इस अवसर पर राष्‍ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के प्रधान मंत्री डॉ.अनन्‍त राम त्रिपाठी, डॉ.उषा शुक्‍ला ने भी अपने विचार व्‍यक्‍त किए। संचालन डॉ.रामेश्‍वर राय का था।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा, केंद्रीय हिंदी संस्‍थान, नेशनल बुक ट्रस्‍ट, सी डैक, राष्ट्रीय अभिलेखागार द्वारा लगाई गई प्रदर्शनियां, हिंदी विश्‍व बुलेटिन का दैनिक प्रकाशन, सांस्‍कृतिक प्रस्‍तुतियां आदि आकर्षण के केंद्र रहे। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा को विदेश मंत्रालय द्वारा विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान प्रदर्शनियों के संयोजक और चार पेज के हिंदी विश्‍व समाचार पत्र के दैनिक प्रकाशन का कार्यभार सौंपा गया था, जिसके लिए कुलपति विभूति नारायण राय द्वारा प्रति कुलपति प्रो.ए.अरविंदाक्षन, डॉ.अनिल कुमार राय, अशोक मिश्र, डॉ.प्रीति सागर, अमित विश्वास, राजेश यादव, राजेश अरोड़ा को इस दायित्व के निर्वहन का जिम्मा सौंपा गया था। विश्वविद्यालय की प्रदर्शनी समिति की जिम्मेदारी, प्रो.सूरज पालीवाल, प्रो.नृपेन्द्र प्रसाद मोदी, डॉ.एम.एम.मंगोड़ी ने निभाई। सांस्कृतिक कार्यक्रमों की कड़ी में एक कवि सम्‍मेलन भी संपन्‍न हुआ पर सबसे प्रभावशाली रही शेखर सेन की संत कबीर पर उनकी एकल नाट्य प्रस्‍तुति। इस अवसर पर दक्षिण अफ्रीका में हिंदी की अलख जगाने वाले नरदेव नरोत्‍तम वेदालंकार की प्रतिमा का अनावरण, पचासों विमोचन यादगार क्षण थे। सैकड़ों पर्चे, विद्वानों का महाकुंभ, अनगिनत विचार-सबको देख-सुन पाना भी मु‍हाल। गांधीग्राम का विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन एक बौद्धिक मेला बना हुआ था। इस बार 16 देशों के प्राय: 40 विद्वान सम्‍मानित हुए। भारत का विदेश मंत्रालय, भारतीय सांस्‍कृतिक संबंध परिषद, बामर लॉरी एण्‍ड क., दक्षिण अफ्रीका हिंदी शिक्षा संघ इस सम्‍मेलन को सफल बनाने में लगे रहे फिर भी जोहांसबर्ग को कतिपय लूट-छिनतई, ब्‍लैकमेलिंग, अफरातफरी अव्‍यवस्‍था की कुछ घटनाएं हो ही गईं। महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा को विदेशों में हिंदी के मानक पाठ्यक्रम तैयार कि⃭ये जाने का दायित्‍व सौंपा गया। सम्‍मेलन नाना प्रतिज्ञाओं, संकल्‍पों के साथ समाप्‍त हुआ जिसमें एक था- अगला विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन भारत में आयोजित होगा। 

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