गुरुवार, 23 मई 2013


अनुवादकों का बनेगा राष्‍ट्रीय डाटाबेस – प्रो. देवराज

अनुवाद दो भिन्‍न संस्‍कृतियों को जोडने का माध्‍यम है। भारतीय अस्मिता की पहचान बनाने के लिए अनुवाद एक महत्‍वपूर्ण साधन के रूप में उभर रहा है। अनुवाद के क्षेत्र में रोजगार की वैश्विक संभावनाएं और बढ़ रही है। उक्‍त आशय का वक्‍तव्‍य महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ के अधिष्‍ठाता प्रो. देवराज ने व्‍यक्‍त किये।
     सूचना प्रौद्योगिकी के विकास में अनुवाद की भूमिका पर प्रो. देवराज का मानना है कि सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के साथ जीवन के विभिन्‍न क्षेत्रों में विकास की गति तेज हुई है तथा वैश्‍वीकरण की शक्तियों ने हर क्षेत्र को प्रभावित किया है। इससे अकादमिक जगत भी अछूता नहीं रहा है। परिणाम यह हुआ कि सूचना प्रौद्योगिकी के माध्‍यम से आज विभिन्‍न क्षेत्रों में विविध स्‍थानों पर किए जा रहे शोध को हम अपने डेस्‍कटॉप पर देख सकते हैं और उसकी समीक्षा कर सकते हैं। उन्‍होंने कहा कि विभिन्‍न भाषाओं में किए जाने वाले शोध को हिंदी एवं अन्‍य भारतीय भाषाओं के माध्‍यम से सबके लिए उपलब्‍ध कराना होगा। इस कार्य के लिए अनुवाद तथा अनुवाद प्रौद्योगिकी का सहारा देना होगा। विश्‍वविद्यालय में स्‍थापित अनुवाद प्रौद्योगिकी विभाग इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए तत्‍पर है। अनुवाद में रोजगार की संभावनाओं का जिक्र करते हुए उन्‍होंने कहा कि अनुवाद का पाठयक्रम पूरा करने पर राष्‍ट्रीय एवं अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर अनुवादक व दुभाषिए के रूप में रोजगार की अपार संभावनाएं हैं। इससे इतर शैक्षणिक संस्‍थानों में राष्‍ट्रीय, अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर अनुवादक एवं दुभाषिए के रूप में, शैक्षणिक संस्‍थानों में अध्‍यापन के क्षेत्र में, राजभाषा अधिकारी के रूप में, बी.पी.ओ. एवं काल सेंटर में विदेशी भाषा इंटरप्रेटर के रूप में, पर्यटन उद्योग एवं होटल प्रबंधन के क्षेत्र में, अनुवाद प्रौद्योगिकी क्षेत्र में मशीनी अनुवाद और सिनेमेटिक अनुवाद का कार्य, फिल्‍म एवं टी.वी. में अनुवादक के रूप में, पत्रकारिता में अनुवादक के रूप में रोजगार की असीम संभावनाएं है।
विश्‍वविद्यालय के अनुवाद प्रौद्योगिकी विभाग के बारे में उन्‍होंने कहा कि वैश्विकरण के इस दौर में राष्‍ट्रीय एवं अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर दिन-प्रति दिन अनुवाद की महत्‍ता बढ़ती जा रही है। इसे बहुआयामी एवं स्‍वायत्‍त अनुशासन के रूप में पहचान मिल चुकी है, इसीलिए विश्‍वविद्यालय में अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ प्रारंभ हुआ। यह विद्यापीठ समस्‍त विश्‍वविद्यालयों में अद्वितीय है और इसके अंतर्गत कार्यरत अनुवाद प्रौद्योगिकी विभाग देश का एकमात्र ऐसा विभाग है, जो अनुवाद की तकनीकी, प्रणालीगत और रोजगारपरक संभावनाओं को यथार्थ में परिणत करने के लिए सतत प्रयासरत है। ज्ञात हो की इस विभाग द्वारा अनुवाद प्रौद्योगिकी में एम.ए., एम.फिल. तथा पीएच. डी. तथा हिंदी अनुवाद में एक वर्षीय स्‍नातकोत्‍तर डिप्‍लोमा, प्रयोजनमूलक हिंदी और अनुवाद में एक वर्षीय स्‍नातकोत्‍तर डिप्‍लोमा, निर्वचन में एम वर्षीय स्‍नातकोत्‍तर डिप्‍लोमा आदि पाठयक्रम संचालित किए जा रहे हैं। विभाग के छात्र नेट और जेआरएफ में भी सफल हो रहे हैं। जिससे वे उक्‍त पाठयक्रम पूरा करने पर विभिन्‍न संस्‍थानों में रोजगार पा रहे है। सी. डैक, बैंक, आईआईटी, एसएनडीटी, मुंबई जैसे संस्‍थानों में इस विभाग के छात्र कार्यरत है। भविष्‍य की योजनाओं के बारे में प्रो. देवराज का कहना है कि हम अनुवादकों का डाटाबेस बना रहे है। जिससे अनुवादकों की एक राष्‍ट्रीय सूची तयार होगी और अन्‍य भाषाओं से हिंदी में अनुवाद करने के लिए यह सूची आधार बनेगी। विभाग द्वारा ज्ञान सर्जन केंद्र बनाने की पहल की जा रही है। जिसके द्वारा से विज्ञान, समाज विज्ञान एवं मानविकी विषयों से जुड़े शोध अनुवाद के माध्‍यम से हिंदी में उपलब्‍ध हो सकेंगे। 

मंगलवार, 21 मई 2013

खुशनुमा एहसास  देता है वर्धा विश्‍वविद्यालय – सुधा अरोड़ा


हिंदी की नामचीन लेखिका सुधा अरोड़ा ने महात्मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय में एक चर्चा के दौरान कहा कि वर्धा, महाराष्ट्र से बेहतर कोई जगह हो नहीं सकती थी इस विश्‍वविद्यालय के लिए! किसी भी जनसंख्या बहुल महानगर में यह माहौल मिल पाना असंभव है। इतना खुला-खिला पर्यावरण, हरे-भरे पेड़, ऊंची-नीची ढ़लान लिए सड़कें, किसी हिल स्टेशन के खुशनुमा माहौल का ही  एहसास दिलाती हैं! बेहद कलात्मकता, सलीके और आत्मीयता से बनाए गए गांधी हिल, कबीर हिल पर भारत की पूरी सांस्कृतिक-साहित्यिक विरासत ताज़ा हो उठती है और हमें भावुक बनाने के साथ-साथ एक गर्व से भर देती है। सड़कों, संकुल और कार्यालयों के नामकरण भारत के गणमान्य रचनाकारों के नाम पर! कुल मिला कर ज्ञान के इस अपरिमित भण्डार में आना एक अनोखा सुख देता है! यहाँ के कुलपति विभूति नारायण राय और उनकी सहयोगी टीम को इसका श्रेय जाता है, जिन्होंने एक असंभव से सपने को सच कर दिखाया!
महिलाओं पर हो रहे अत्‍याचार के संदर्भ में चर्चा के दौरान सुधा अरोड़ा ने कहा कि दामिनी बलात्‍कार कांड के बाद ऐसा लगा कि अब कुछ कड़े कानून बनेंगे और महिलाएं सुरक्षित जीवनयापन कर सकेंगी। लेकिन इसी माह 3 मई, 2013 की सुबह के अखबार के पहले पन्ने की एक खबर पढ़कर मन उचाट हो गया। बांद्रा टर्मिनस पर दिल्ली से गरीब रथ एक्सप्रेस से मुंबई में पहली बार उतरी प्रीति राठी के ऊपर एक व्यक्ति ने एसिड फेंक दिया। हमलावर ने उसके कंधे पर पीछे से हाथ रखा और जैसे ही लड़की ने पीछे घूम कर देखा उसके चेहरे पर एसिड फेंक कर वह भाग गया। इतनी भीड़ वाले इलाके में भी कोई उसे रोक या पकड़ नहीं कर पाया और वह एक जिंदगी बर्बाद कर फरार हो गया। 22 साल की मासूम सी दिखती लड़की प्रीति राठी ने सैनिक अस्पताल में नर्स की नियुक्ति के लिए पहली बार मुंबई शहर में कदम रखा था और 15 मई से उसे अपनी पहली नौकरी की शुरुआत करनी थी। उसके पत्रों की भाषा जिस तरह से हताशा और चिंता से भरी हुई थी, वह न केवल दिल दहलाने वाली थी बल्कि एक स्त्री के जीवन में आजीविका के समानांतर किसी और विकल्प के गैरजरूरी होने का भी सबूत देती थी। एक लड़की अस्पताल में जीवन और मृत्यु से जूझ रही है लेकिन जब भी उसे होश आता है तो वह अपनी नौकरी के बचने और छोटी बहनों के सुरक्षित रहने की चिंता व्यक्त करती है।
महिलाओं पर बलात्‍कार की घटनाएं और न्‍यायिक प्रक्रिया के संदर्भ में तीखी प्रतिक्रिया देते हुए श्रीमती अरोड़ा ने कहा कि हमारी न्यायिक प्रक्रिया इतनी धीमी है कि पीड़ित को न्याय मिलना लगभग असंभव है। कमज़ोर स्त्री अपने अधिकारों के प्रति न तो जागरूक है, न उसे अपने अधिकारों की जानकारी है। कहीं कुछ रास्ता दिखे भी, तो उसके पास इतना साहस नहीं है कि अपने लिए न्याय की गुहार लगा सके। देश की न्यायिक प्रक्रिया उसके लिए एक ऐसी अंतहीन यंत्रणा बन जाती है जो अपराध से अधिक आतंकित करने वाली और डरावनी होती है। बहुत कम मामले ही मीडिया द्वारा हमारे सामने आ पाते हैं अधिकांश तो दर्ज ही नहीं हो पाते क्‍योंकि पुलिस में मामले को ले जाना एक यातनादायक प्रक्रिया है। फिर पूछताछ और तफ्तीश से पीड़ित को इतना तोड़ दिया जाता है कि वह आगे जाने की हिम्मत ही नहीं करती। इस देश में भंवरी देवी के मामले को हम देख चुके हैं जिसे सारे महिला संगठनों की कोशिश के बावजूद न्‍याय नहीं मिल पाया
सुधा अरोड़ा ने कहा कि स्त्री के संबंध में हमारा सामाजिक पर्यावरण कैसा है और उसमें लोकतंत्र की सभी संस्थाएं-विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका स्त्री के प्रति व्यवहार की कैसी नज़ीर पेश कर रही हैं? इससे हमारे युवा किस तरह की सीख ले रहे हैं? इसे हम कुछ सामान्य उदाहरणों के माध्यम से समझ सकते हैं। कार्यस्थल पर यौन-शोषण और दुर्व्‍यवहार भारत में एक जाना-पहचाना मामला है। आमतौर पर स्त्रियाँ इससे बचती हुई अपनी आजीविका को बचाने की जुगत में लगी हैं। अमूमन वे या तो चुप्पी साध लेती हैं या समझौता करते हुए वहाँ बनी रहती हैं। लेकिन जो इस मामले के खिलाफ खड़ी होती हैं और इसे बाहर ले जाने का साहस करती हैं उन्हें सबसे अधिक खामियाजा सामाजिक रूप से भोगना पड़ता है। चरित्र-हत्या और कुप्रचार के सहारे उन्हें इतना कमजोर कर दिया जाता है कि वे अक्सर अपनी लड़ाई अधूरी छोड़ देती हैं या बीच में ही थक कर बैठ जाती हैं। इसका सबसे नकारात्मक असर यह है कि जन-सामान्य, स्त्री के प्रति हुए अन्याय के खिलाफ खड़े होने की जगह, अपनी धारणा में उसे चालूमान लेता है। यही धारणा लगातार विकसित होती रहती है जो अपने जघन्य रूप में स्त्री के प्रति अपराध को रोज़मर्रा की एक सामान्य सी घटना बना देती है।
स्त्रियों पर हो रहे घटनाओं की क्रमवार श्रृंखला से निजात पाने के लिए जनता का एक बड़ा वर्ग कड़े कानून की मांग कर रहा है लेकिन हमें इस विषय पर गंभीरता से विचार करना होगा कि अगर हमारी राजनीति और अर्थव्यवस्था सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर हरसंभव पशुता को ही बढ़ावा दे रही है तो मात्र कानून इस प्रवृत्ति से छुटकारा नहीं दिला सकता। हमें उस बिंदु तक पहुंचना होगा जहां से ये सारी चीजें संचालित और नियंत्रित हो रही हैं। अगर सत्ता के करीबी वर्ग में जड़ जमा चुकी गड़बडि़याँ, नीचे और हाशियाई वर्गों में फैलेंगी तो उसका परिणाम भयावह होगा ही। निश्चित ही स्त्री हर कहीं इन स्थितियों की सबसे आसान शिकार (सॉफ्ट टारगेट) है। 
विश्‍वविद्यालय के स्‍त्री अध्‍ययन विभाग की गतिविधियों पर टिप्‍पणी करते हुए उन्‍होंने कहा कि पिछले तीन दिनों से वर्धा हिंदी विश्‍वविद्यालय में हूँ-स्त्री अध्ययन विभाग के कुछ शोध-प्रबंध देखे! बहुत अलग किस्म का और बेहद ज़रूरी काम करवाया जा रहा है इस विभाग में! आज देश के हर विश्‍वविद्यालय में स्त्री अध्ययन विभाग खुलने की ज़रूरत महसूस की जा रही है। अफ़सोस की बात है कि कई विश्‍वविद्यालयों में ये विभाग बंद होने की कगार पर हैं क्योंकि विद्यार्थी वहां जुट नहीं पा रहे! वर्धा में इस विभाग में जिस तरह का काम हो रहा है, वह देश-विदेश के किसी भी विभाग के लिए अनुकरणीय है! इस विश्‍वविद्यालय में हिंदीतर भाषी विद्यार्थियों को अनिवार्य रूप से भाषा, व्‍याकरण, वाक्‍य विन्‍यास का एक क्रैश कोर्स प्राथमिक रूप से करवाया जाए ताकि विषय और विमर्श की जानकारी के साथ-साथ वे हिंदी की भाषागत समृद्धि से भी परिचित हो सकें।
  

सोमवार, 20 मई 2013


हिंदी विवि के बौद्ध अध्‍ययन केंद्र को थाइलैण्‍ड की बुद्ध मूर्ति भेंट


महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के भदंत आनंद कौसल्‍यायन बौद्ध अध्‍ययन केंद्र को थाईलैण्‍ड के भिक्षु अचानकाई द्वारा बनाई गयी बुद्ध मूर्ति भेंट स्‍वरूप प्रदान की गयी है। इस मूर्ति को महानाग शाक्‍य मुनी विज्‍जासन, नागपुर के अध्‍यक्ष भंते विमतकित्‍ती गुणसरी, भंते आनंद और चंद्रकित्‍ती के सहयोग से विश्‍वविद्यालय में लाया गया।
इस मूर्ति को विश्‍वविद्यालय के कुलसचिव डॉ. कैलाश खामरे, वित्‍ताधिकारी संजय गवई, विशेष कर्तव्‍य अधिकारी नरेन्‍द्र सिंह, बौद्ध अध्‍ययन केंद्र के प्रभारी सहायक प्रोफेसर सुरजीत सिंह, हिंदी अधिकारी राजेश यादव तथा जनसंपर्क अधिकारी बी. एस. मिरगे सहित विभाग के छात्रों की प्रमुख उपस्थिति में सावंगी मेधंकर विभागीय पुस्‍तकालय में रखा गया। इस अवसर पर भदंत आनंद कौसल्‍यायन बौद्ध अध्‍ययन केंद्र के प्रभारी सुरजीत सिंह ने कहा कि यह स्‍वर्णीम प्रतिमा पदमासन की अवस्‍था में बनाई गयी है और यह 3.75 फिट उंची और 185 किलो ग्राम वजन की है। सुरजीत सिंह ने आगे कहा कि विश्‍वविद्यालय में भदंत आनंद कौसल्‍यायन के शिष्‍य सावंगी मेधंकर के नाम पर विभागीय पुस्‍तकालय को शुरू करने, विभाग में बौद्ध अध्‍ययन में एम. फिल. और पी. एचडी. आदि उच्‍च शिक्षा की दिशा में पाठ्यक्रम आरंभ करने तथा अंतरराष्‍ट्रीय शोध पत्रिका संगायन का संपादन कर उसे प्रकाशित करने के प्रयासों के लिए इस मूर्ति को भेंट स्‍वरूप प्रदान किया गया है। इसके लिए उन्‍होंने भिक्षु अचान काई और महानाग शाक्‍य मुनी विज्‍जासन, नागपुर के अध्‍यक्ष विमलकित्‍ती सहित उनके सहयोगी भंते का धन्‍यवाद व्‍यक्‍त किया। उन्‍होंने बताया कि आने वाले वर्षों में विभाग में एक संग्रहालय आकार लेगा जिसमें विदर्भ के सेलु, चंद्रपुर, भद्रावती, पवनी आदि क्षेत्रों से बुद्ध मूर्तियां प्राप्‍त की जाएगी और उसे संग्रहालय में सुरक्षित रखा जाएगा। कार्यक्रम का संचालन बी. एस. मिरगे ने किया। इस अवसर पर रजनिश अम्‍बेडकर, वसिष्‍ठ भगत, वृंदावन मून, ब्रिजेश यादव, रवीन्‍द्र मुंडे, राजकुमार, विजयकुमार यादव, सुभाष कांबले, भूषण सालवे तथा अमन ताकसांडे उपस्थित थे।  

गुरुवार, 2 मई 2013


कविता आँख-मिचौली का खेलः राकेश श्रीमाल

युवा साहित्यकार राकेश श्रीमाल ने कहा है कि कविता आँख-मिचौली के खेल की तरह है। अगर छू लिया तो पकड़ में आ जाती है लेकिन अधिकतर पकड़ में नहीं आती। श्रीमाल महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र में कविता की प्रकृति पर आयोजित संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि आज सबसे अधिक महत्वपूर्ण है कि हम कविता के देखने को देख पाएं। कविता किस तरह से हमारे समाज, हमारे परिदृश्य और हमारी संस्कृति को देख पा रही है, इसे देखने की जरूरत है। जिस तरह घास का तिनका सूरज को देखता है, कविता उसी तरह पाठक को देखती है।
राकेश श्रीमाल ने कहा कि कविता से सच की उम्मीद नहीं करते हुए यथार्थ की उम्मीद करनी चाहिए क्योंकि यथार्थ सच और झूठ से हमेशा परे अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है। कवि ब्रज मोहन ने कहा कि कविता बहुत अंतराल की अपेक्षा रखती है। केदारनाथ सिंह का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि उनके पहले और दूसरे कविता संग्रह में बीस वर्षों का अंतराल है। कवि जितेंद्र धीर ने कहा कि यह काव्य अराजक समय है और जीवन के वृहत्तर संदर्भों से जुड़ी रचनाओं का लगभग अकाल सा है।  साहित्यकार सेराज खान बातिश ने कहा कि सारे धर्म ग्रंथ कविता में लिखे गए हैं लेकिन कविता उससे आगे की चीज है। वह मनिष्य को धर्म से भी ऊपर उठाती है। कवि-कथाकार विमलेश त्रिपाठी ने कहा कि कविता के लिए पागल मन की जरूरत होती है। कवयित्री निर्मला तोदी ने कहा कि कविता अनायास ही स्वभाव संगी बन जाती है। उन्होंने खुद स्वाभाविक तौर पर कविताएं लिखनी शुरू कीं और उसी तरह छपने भी लगीं। कवि डा. प्रमथनाथ मिश्र ने कहा कि कविता पर आज पाश्चात्य प्रभाव दिखता है और छंद का भी अभाव दिखता है। लेखक-अनुवादक डा. सत्यप्रकाश तिवारी ने कहा कि आज कविता के सामने पठनीयता की समस्या है।  रंगकर्मी जितेंद्र सिंह ने कहा कि वाचन या पाठ के बूते ही कविता किताब के पन्ने से निकलकर जबान तक आएगी। संगोष्ठी को राजेंद्र राय, श्रीनिवास यादव, सुशील कांति, अभिजीत सिंह, परमानंद सिंह ने भी संबोधित किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. विमलेश्वर द्विवेदी ने कहा कि आज की कविता के सामने सबसे बड़ी चुनौती बौद्धिकता तथा संवेदना की दूरी को पाटना है। बीज भाषण देते हुए विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र के प्रभारी डा. कृपाशंकर चौबे ने कहा कि हिंदी कविता के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि उसमें वैसी भाषिक निरंतरता नहीं है जैसी उर्दू, मराठी, कन्नड़ या उड़िया में है।

मेरे निर्माण और रचनाशीलता में इलाहाबाद का है अहम रोल : रवींद्र कालिया

हिंदी विवि के इलाहाबाद केंद्र में आयोजित हुईमेरी शब्दयात्रा’ श्रृंखला

महात्मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा के इलाहाबाद क्षेत्रीय केंद्र में दिनांक 27 अप्रैल 2013 कोमेरी शब्द यात्रा’ श्रृंखला के तहत आयोजित तीसरे कार्यक्रम में वरिष्‍ठ साहित्यकार एवं नया ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया ने अपनी रचना प्रक्रिया को साझा करते हुए कहा कि अब साहित्‍य, समाज के आगे चलने वाली मशाल नहीं रही, अब वह समाज से बहुत ज्‍यादा पीछे रहकर लंगड़ाते हुए चल रहा है। कालिया जी अपनों से मुखातिब हुए तो फिर पूरी साफगोई से कल से आज तक का सफरनामा सुनाया। कहा, आज हिंदी का वर्चस्‍व बढ़ रहा है और इसका भविष्‍य उज्‍ज्‍वल है। आने वाले कल में लोग हिंदी के अच्‍छे स्‍कूलों के लिए भागेंगे। मेरा सौभाग्‍य है कि इसी हिंदी के सहारे मैंने पूरी दुनिया की सैर की। जहां तक लिखने के लिए समय निकालने की बात है तो मैंने जो कुछ भी लिखा, अपने व्यस्ततम क्षणों में ही लिखा। जितना ज्‍यादा व्‍यस्‍त रहा, उतना ही ज्‍यादा लिखा। अपने आसपास की जिंदगी को जितना अच्‍छा समझ सकेंगे, उतना ही अच्‍छा लिख सकेंगे। कई बार समय को जानने के लिए टीनएजर्स को समझना जरूरी है, उनकी ऊर्जा और सोच में समय का सच होता है।
      रवीन्‍द्र कालिया ने कहा कि, मेरा मनना है कि जो बीत जाता है, उसे भुला देना बेहतर है, उसे खोजना अपना समय व्‍यर्थ करना है। लोग जड़ों के पीछे भागते हैं, मैं अपनी जड़े खोजने जालंधर गया, पर वहां इतना कुछ बदल चुका था कि बीते हुए कल के निशान तक नहीं मिले। मेरी स्‍मृतियों में इलाहाबाद आज भी जिंदा है, रानी मंडी को मैं आज भी महसूस करता हूं। मैं जब पहली बार इलाहाबाद पहुंचा था तो मेरी जेब में सिर्फ बीस रुपये थे और जानने वाले के नाम पर अश्‍क जी, जो उन दिनों शहर से बाहर थे। माना जाता था कि जिसे इलाहाबाद ने मान्‍यता दे दी, वह लेखक मान लिया जाता था। इसी शहर ने मुझेपर’ बांधना सिखाया और उड़ना भी। यहां सबसे ज्‍यादा कठिन लोग रहते हैं। यहां सबसे ज्‍यादा स्‍पीड ब्रेकर हैं, सड़कों पर और जिंदगी में भी। इस शहर में प्रतिरोध का स्‍वर है। हालांकि आज हम दोहरा चरित्र लेकर जीते हैं, ऐसा नहीं होता तो दिखने वाले प्रतिरोध के स्‍वर के बाद दिल्‍ली जैसी कोई घटना दोबारा नहीं होती। अब प्रतिरोध का शोकगीत लिखने का समय आ गया है। जरूरत है उन चेहरों के शिनाख्‍त की जो मुखौटे लगाकर प्रतिरोध करते हैं। साहित्‍यकार होने के नाते मैं भी शर्मिंदा हूं। जो साहित्‍य जिंदगी के बदलाव की तस्‍वीर पेश करता है, वही सच्‍चा साहित्‍य है। यदि हमारा साहित्‍य लेखन समाज को नहीं बदलता है तो वह झक मारने जैसा ही है। प्रेमचंद का लेखन जमीन से जुड़ा था, इसीलिए वह आज भी सबसे ज्‍यादा प्रासंगिक और पठनीय है। मेरी कोशिश रहेगी कि मैं अपने लेखन में समाज से ज्‍यादा जुड़ा रह सकूं।
      अतीत की स्‍मृतियों को सहेजते हुए उन्‍होंने हिंदी और लेखन से नाता जोड़ने की दिलचस्‍प दास्‍तां सुनाई। बोले, घर में आने वाले हिंदी के अखबार में बच्‍चों का कोना के लिए कोई रचना भेजी थी, तब मुझे सलीके से अपना नाम भी लिखना नहीं आता था। चंद्रकांता संतति जैसी कुछ किताबें लेकर पढ़ना शुरू किया। कुछ लेखकों के नाम समझ में आने लगे। जाना कि अश्‍क जी जालंधर के हैं तो एक परिचित के माध्‍यम से उनसे मिलना हुआ, साथ में मोहन राकेश भी थे। इस बीच एक बार बहुत हिम्‍मत करके अश्‍क जी का इंटरव्‍यु लेने पहुंचा तो उनका बड़प्‍पन कि उन्‍होंने मुझसे कागज लेकर उस पर सवाल और जवाब दोनों ही लिखकर दे दिए। उनका इंटरव्‍यु साप्‍ताहिक हिंदुस्तान में छपा। सिलसिला शुरू हुआ तो एक गोष्‍ठी में पहली कहानी पढ़ी। साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान और फिर आदर्श पत्रिका में कहानी छपी तो पहचान बनने लगी। परिणाम यह कि जालंधर आने पर एक दिन मोहन राकेश जी मुझे ढूंढते हुए घर तक आ पहुंचे। उन्‍होंने ही मुझे हिंदी से बीए आनर्स करने को कहा। हालांकि मेरी बहनों ने पालिटिकल साइंस में पढ़ाई की। शुरूआत में विरोध तो हुआ लेकिन बाद में सब ठीक होगा। कपूरथला के सरकारी कालेज में पहली नौकरी की। आरंभिक दौर में मेरी कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में जिस गति से जाती, उसी गति से लौट आती। बाद में वे सभी उन्‍हीं पत्रिकाओं में छपीं, जहां से लौटी थीं। आकाशवाणी में भी कार्यक्रम मिलने लगे जहां जगजीत सिंह जैसे दोस्‍त भी मिले। इससे पहले कालिया जी ने अपनी कहानी एक होम्योपैथिक कहानी’का पाठ किया। बतौर अध्यक्ष लाल बहादुर वर्मा ने कहा कि, आज कालिया जी को सुनना जितना अच्‍छा लगा, अब से पहले कभी नहीं। यह इसलिए सुखद लगा क्‍योंकि शब्‍दों में अर्थ विलीन होता रहा, लेकिन आज जरूरत है कि समाज और साहित्‍य को लेकर उनकी चिंताएं साझा की जाएं। 
कार्यक्रम का संयोजन एवं संचालन क्षेत्रीय केंद्र के प्रभारी प्रो. संतोष भदौरिया द्वारा किया गया। लाल बहादुर वर्मा एवं अजित पुष्‍कल ने शाल, पुष्‍पगुच्छ प्रदान कर साहित्यकार रवींद्र कालिया का स्वागत किया एवं धनन्जय चोपड़ा ने रवींद्र कालिया के जीवन वृत्त पर प्रकाश डाला। प्रो. .. फातमी ने अतिथियों का स्वागत किया।
गोष्ठी में प्रमुख रूप से ममता कालिया, असरफ अली बेग, अनीता गोपेश, दिनेश ग्रोवर, रमेश ग्रोवर, एहतराम इस्लाम, रविनंदन सिंह, अनिल रंजन भौमिक, अजय प्रकाश, विवेक सत्यांशु, नीलम शंकर, बद्रीनारायण, हरीशचन्द पाण्डेय, जयकृष्‍ण राय तुषार, नन्दल हितैषी, फखरूल करीम, जेपी मिश्रा, सुबोध शुक्ला, अविनाश मिश्र, श्रीप्रकाश मिश्र, आमोद माहेश्‍वरी, फज़ले हसनैन, सुरेन्द्र राही, अमरेन्द्र सिंह सहित तमाम साहित्य प्रेमी उपस्थित रहे।


कामगार दिवस पर हिंदी विवि के कर्मी हुए पुरस्‍कृत


महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने कामगार दिवस के उपलक्ष्‍य में विश्‍वविद्यालय में विभिन्‍न पदों पर सेवारत कर्मियों को पुरस्‍कृत किया। उन्‍होंने उत्‍कृष्‍ट कर्मचारी पुरस्‍कार के रूप में ग्रुप बी में संगीता मालवीया को प्रथम, मनोज द्विवेदी को द्वितीय तथा भालचंद्र सिंह को तृतीय पुरस्‍कार और ग्रुप सी में कार्यरत उमाशंकर बघेल को प्रथम, शरद बकाले को द्वितीय तथा विश्राम सिंह को तृतीय पुरस्‍कार प्रदान किया। कुलपति राय ने कर्मियों को मेडल प्रदान कर सम्‍मानित किया। इस अवसर पर कुलसचिव डॉ. कैलाश खामरे, वित्‍ताधिकारी संजय गवई, विशेष कर्तव्‍य अधिकारी नरेंद्र सिंह, जनसंपर्क अधिकारी बी. एस. मिरगे उपस्थित थे।