कविता आँख-मिचौली का खेलः राकेश श्रीमाल
युवा साहित्यकार राकेश श्रीमाल ने
कहा है कि कविता आँख-मिचौली के खेल की तरह है। अगर छू लिया तो पकड़ में आ जाती है
लेकिन अधिकतर पकड़ में नहीं आती। श्रीमाल महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र में कविता की प्रकृति पर आयोजित संगोष्ठी को
संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि आज सबसे अधिक महत्वपूर्ण है कि हम कविता के
देखने को देख पाएं। कविता किस तरह से हमारे समाज, हमारे परिदृश्य और हमारी
संस्कृति को देख पा रही है, इसे देखने की जरूरत है। जिस तरह घास का तिनका सूरज को
देखता है, कविता उसी तरह पाठक को देखती है।
राकेश श्रीमाल ने कहा कि कविता से सच
की उम्मीद नहीं करते हुए यथार्थ की उम्मीद करनी चाहिए क्योंकि यथार्थ सच और झूठ से
हमेशा परे अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखता है। कवि ब्रज मोहन ने कहा कि कविता बहुत
अंतराल की अपेक्षा रखती है। केदारनाथ सिंह का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि
उनके पहले और दूसरे कविता संग्रह में बीस वर्षों का अंतराल है। कवि जितेंद्र धीर
ने कहा कि यह काव्य अराजक समय है और जीवन के वृहत्तर संदर्भों से जुड़ी रचनाओं का
लगभग अकाल सा है। साहित्यकार सेराज खान बातिश ने कहा कि सारे
धर्म ग्रंथ कविता में लिखे गए हैं लेकिन कविता उससे आगे की चीज है। वह मनिष्य को
धर्म से भी ऊपर उठाती है। कवि-कथाकार विमलेश त्रिपाठी ने कहा कि कविता के लिए पागल
मन की जरूरत होती है। कवयित्री निर्मला तोदी ने कहा कि कविता अनायास ही स्वभाव
संगी बन जाती है। उन्होंने खुद स्वाभाविक तौर पर कविताएं लिखनी शुरू कीं और उसी तरह
छपने भी लगीं। कवि डा. प्रमथनाथ मिश्र ने कहा कि कविता पर आज पाश्चात्य प्रभाव
दिखता है और छंद का भी अभाव दिखता है। लेखक-अनुवादक डा. सत्यप्रकाश तिवारी ने कहा
कि आज कविता के सामने पठनीयता की समस्या है। रंगकर्मी जितेंद्र सिंह ने कहा कि वाचन या पाठ
के बूते ही कविता किताब के पन्ने से निकलकर जबान तक आएगी। संगोष्ठी को राजेंद्र
राय, श्रीनिवास यादव, सुशील कांति, अभिजीत सिंह, परमानंद सिंह ने भी संबोधित किया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. विमलेश्वर द्विवेदी ने
कहा कि आज की कविता के सामने सबसे बड़ी चुनौती बौद्धिकता तथा संवेदना की दूरी को
पाटना है। बीज भाषण
देते हुए विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र के प्रभारी डा. कृपाशंकर चौबे ने कहा कि
हिंदी कविता के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि उसमें वैसी भाषिक निरंतरता नहीं है
जैसी उर्दू, मराठी, कन्नड़ या उड़िया में है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें