सोमवार, 15 अप्रैल 2013


पुरस्‍कार की राजनी‍ति से कविता के जनतंत्र को खतरा : प्रो.निर्मला जैन

हिंदी विवि के इलाहाबाद केंद्र में कविता का जनतंत्र और जनतंत्र की कविता पर विद्वानों ने किया विमर्श

महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा के इलाहाबाद क्षेत्रीय केंद्र द्वारा कविता का जनतंत्र और जनतंत्र की कविता विषय पर गोष्‍ठी का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की अध्‍यक्षता करते हुए हिंदी की सुप्रसिद्ध आलोचक प्रो.निर्मला जैन ने कहा कि पुरस्‍कार की राजनी‍ति से कविता के जनतंत्र को खतरा है। कविता मनुष्‍य बनाने का काम करती है। तुलसीदास बड़े कवि इसलिए हैं कि वे पंडितों, चौक-चौराहों और विद्वानों के बीच भी पढ़े जाते हैं। कविता में लय की उपस्थिति अनिवार्य है और इसकी लय गद्य से बिल्‍कुल अलग होनी चाहिए। उन्‍होंने कहा कि कविता की भाषा जितने अधिक लोगों की समझ में आएगी उसमें लोकतंत्र उतना ही ज्‍यादा होगा। जिस कविता में समाज की चिंता होगी, सही बातों को कहने की क्षमता होगी, वही जनतंत्र की कविता होगी। हमें यह कहने में गुरेज नहीं है कि जहां देश का जनतंत्र ही खतरे में है वहां कविता के जनतंत्र की बात नहीं की जा सकती है।    
      बतौर मुख्‍य अतिथि कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि उर्दू का कवि मुशायरों में जाता है जबकि हिंदी का बड़े से बड़ा कवि भी मंच पर जाने से कतराता है। कविता का अपना जनतंत्र होता है। ऐसा नहीं है कि बाहरी दुनिया का उसपर कोई असर नहीं होता है। उन्‍होंने कहा कि जनतंत्र का साहित्‍य अपने विपरीत बातों को भी बर्दाश्‍त करने का काम करता है। जनतंत्र का साहित्‍य उदारता और सहिष्‍णुता का पक्ष रखता है। अगर साहित्‍य में असहमति को जगह नहीं है तो उसे जनतंत्र का साहित्‍य नहीं कहा जा सकता है। साहित्‍य को जनपक्ष और जनतंत्र का साहित्‍य बनाने के लिए साहित्‍यकारों को साहस के साथ जनता का साथ देना चाहिए। उन्‍होंने कहा कि अच्‍छी कविता वह है जो हमें मनुष्‍य बनाए, जिसमें जनपक्षधरता, उदारता व मानवीय गुण समाहित हो। 
      वरिष्‍ठ साहित्‍यकार प्रो.विजय बहादुर सिंह ने कहा कि साहित्‍य या कविता का जनतंत्र अनुभव का जनतंत्र है। इसे किसी खांचे में बांधने से जनतंत्र का स्‍वरूप समाप्‍त हो जाएगा। इसे पाठकों की समझ पर छोड़ दिया जाना चाहिए। कविता आधुनिकता या प्रगतिशीलता का ठेका नहीं लेती है बल्कि आम जन की अनुभूतियों और जीवन से प्रेरित होती है। जनता को, पाठक को मौका दिया जाना चाहिए कि वह अच्‍छी कविता व अच्‍छी साहित्‍य को चुन सकें।
      पुस्‍तकवार्ता के संपादक भारत भारद्वाज ने कहा कि मनुष्‍य की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। आज खराब कविता ने अच्‍छी कविता को ढ़क दिया है। कविता मनुष्‍य को मनुष्‍य बनाने का काम भलीभांति करती है तभी वही जनतंत्र की कविता है।
      साहित्‍यकार उदभ्रांत ने कहा कि कविता में जीवन संघर्ष नहीं है तो वह जनतंत्र की कविता नहीं कही जा सकती है। कविता का सही रास्‍ता जन-जीवन से जुड़ा होना चाहिए। कविता में छंद को छोड़ना बड़ी दुर्घटना की तरह है। यह कमी पिछले एक दशक से म‍हसूस की जा रही है। अगर सामान्‍य जन को जोड़ना है तो लय को पहचानना होगा। कविता को यहां तक पहुंचाने में आलोचकों की भी महती भूमिका है। कविता का सही अर्थ सामान्‍य जनजीवन और जनतंत्र का भाव है। उन्‍होंने कविता के जनतंत्र पर सवाल उठाया और जनतंत्र की कविता को परिभाषित करने की कोशिश की।
      इस अवसर पर हरिश्‍चन्‍द्र अग्रवाल की ताजा पुस्‍तक सवाल यह है का विमोचन मंचस्‍थ अतिथियों द्वारा किया गया। गोष्‍ठी का संचालन एवं संयोजन इलाहाबाद केंद्र के प्रभारी प्रो.संतोष भदौरिया ने किया। कार्यक्रम में प्रमुख रूप से डॉ.मनोज राय, राकेश श्रीमाल, नरेन्‍द्र पुण्‍डरीक, अमित विश्‍वास, विनय भूषण, हरिश्‍चन्‍द्र अग्रवाल, मीना राय, सुधीर सिंह, हिंमाशु रंजन, रमेश कुमार, अनुपम आनन्‍द, अविनाश मिश्रा, मीना राय, के.के. पांडेय, अशोक सिद्धार्थ, सुरेद्र राही, श्रीप्रकाश मिश्र, हरिश्‍चन्‍द्र पांडेय, असरार गांधी, फखरूल करीम, सालिहा जर्रीन, गुफरान अहमद खां, मनोज सिंह, असरफ अली बेग सहित बडी संख्‍या में साहित्‍य प्रेमी उपस्थित रहे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें