मंगलवार, 9 अप्रैल 2013


कविता की हत्या


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(वीरेंद्र प्रताप यादव)



बड़ी अच्छी योजना थी
तुमने कोशिश भी की थी
कविता की हत्या करने की
घायल थी वो,
कमजोर थी वो,
काली होती जाती थी,
किन्तु कविता अभी भी जीवित थी
अमरता का वरदान था उसे

तुमने और ज्यादा चालाकी की
कविता की सज़ा निर्धारित कर दी
नजरबंद कर दिया उसे
कचहरी का सरकारी ताला लगा दिया
उसके मुँह पर
राज्य की जंजीरों को डाल दिया
उसके बदन पर

लेकिन, कविता का चेहरा बदल गया
उसके अंगों का कार्य बदल गया
कविता अब,
आंखों से बोलने लगी,
आंखों से सुनने लगी,
आँखें ही उसकी ज़ुबान बन गयी
आँखें ही उसके कान बन गए
आँखें ही उसके हाथ बन गए

तुम्हारे कई बार नष्ट करने के बाद भी
अमीबा की तरह, 
हर बार उसकी नयी आँखें निकल आती थीं 
अब उसके पूरे शरीर पर आँखें ही आँखें थीं
उसके उदर पर,
उसके कंधों पर,
उसके स्तनों पर

कविता को,
उसकी आंखों को,
अमरत्व प्राप्त हो रहा था
पेट भरने के लिए शरीर बेचने वाली वेश्याओं से
डांगर से ज्यादा संख्या में मरने वाले किसानों से
साहब के कुत्ते से रोटी खींचने वाले बेरोजगार नवजवानों से
और अब,
आँखें बारूद बनने लगी हैं





4 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी संवेदना है इसी प्रकार लिखते रहें

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  2. जैसे कवियों के कवि शमशेर है उसी प्रकार कविताओं की कविता है आपकी रचना | कविता की आँखों को हमेशा जीवित रखना प्रत्येक कवि का कर्तव्य है | आप अपना काम ज़ारी रखें इसी तरह रचना कर्म करते चले |

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    1. aapne ne bahut badi tulna kar di. mai is layak nahi hun. bas ek koshish thi. aap logo ka sneh evam margdarshan milta rahe

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