बुधवार, 19 जून 2013

शोध समाज के लिए प्रासंगिक हो- कुलपति विभूति नारायण राय

हिंदी विवि में समाज विज्ञान के शिक्षकों के लिए क्षमता निर्माण प्रशिक्षण कार्यक्रम का उदघाटन



समाज विज्ञान के शिक्षकों के लिए क्षमता निर्माण प्रशिक्षण कार्यक्रम के उदघाटन के अवसर पर महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने कहा कि हमारे समाज में शोध के संदर्भ में प्रश्‍न पूछने की परंपरा खत्‍म सी हो गयी है। शोध की बात करते समय हमें पश्चिम का पूर्वाग्रह छोड़ना होगा। उच्‍च शिक्षा में अध्‍ययनरत और शोधरत शिक्षकों और शोधार्थियों को शोध करते समय इस बात का ध्‍यान रखना चाहिए कि उनका शोध समाज के लिए प्रासंगिक हो। हबीब तनवीर सभागार में उदघाटन समारोह की अध्‍यक्षता करते हुए उन्‍होंने उक्‍त बातें रखी।
विश्‍वविद्यालय की ओर से भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्‍ली के सहयोग से 14‍ दिन यानी एक जुलाई तक चलने वाले प्रशिक्षण कार्यक्रम के उदघाटन समारोह में जाने-माने अर्थशास्‍त्री प्रो. श्रीनिवास खांदेवाले, प्रतिकुलपति ए. अरविदाक्षन, हार्डन्‍यूज के संपादक अमित सेन गुप्‍ता, विश्‍वविद्यालय के आवासीय लेखक दूधनाथ सिंह, विवि के स्‍त्री अध्‍ययन विभाग की प्रो. वासंती रमण, कार्यक्रम के संयोजक डॉ. रवीन्‍द्र बोरकर मंचासीन थे।

प्रो. श्रीनिवास खांदेवाले ने एडम स्मिथ और जॉन रॉबिसन के सिद्धांतों का हवाला देते हुए उदघाटकीय वक्‍तव्‍य में कहा कि अनुसंधान को सामाजिक धरातल पर उतारने के लिए शिक्षकों को सांख्यिकी, गणिती शास्‍त्र और तत्‍वज्ञान को समझना होगा। अनुसंधान का मूल सत्‍य की खोज होना चाहिए और इस खोज में निरंतरता होनी चाहिए। समाज विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी ग्रीस का उदाहरण देते हुए उन्‍होंने कहा कि आज समाज विज्ञान की संरचना ही अकार्यकारी हो गयी है। सवाल पूंछने की क्षमता और निर्भयता निर्माण कर शिक्षकों को चाहिए कि वे अपने शोध में अनुकूल और प्रतिकुलता की खोज कर आत्‍मविश्‍वास से सामाजिक शोध को अंजाम तक पहुंचाए। यूरोप और अन्‍य देशों में शोध के प्रति विद्यमान अनेक संभ्रमावस्‍था के बीच उन्‍होंने आशा जतायी कि वर्तमान में सामाजिक अनुसंधान के लिए अच्‍छा वातावरण है, जिसका फायदा हमारे शिक्षकों और शोधार्थियों को उठाना चाहिए। हार्ड न्‍यूज के संपादक अमित सेन गुप्‍ता ने ज्‍योतिबा फुले, डॉ. आंबेडकर, महात्‍मा , ों ा ं अनुकूल ुकूल आैर गांधी, संत तुकाराम आदि के समय का संदर्भ लेते हुए कहा कि सामाजिक शोध करते समय इन समाज सुधारकों के अलग-अलग संघर्ष को रेखांकित करना होगा। शोध में आए भटकाव का जिक्र करते हुए उन्‍होंने कहा कि आज के युवाओं में बिरसा मुण्‍डा, गोरख पाण्‍डेय जैसे संघर्षवादी पुरुष रोल मॉडल नहीं दिखायी देते। आदिवासी समाज की आज भी पत्‍थरों पर आस्‍था है। वह पत्‍थरों पर अपनी यादें लिखते, चित्र बनाते हैं। पूंजीवाद, बाजारवाद के बारे में उन्‍होंने कहा कि आई. पी. एल. उत्‍सव चल रहा है। एक बॉल पर तीन लाख और नौ मिलियन भी मिल रहे। परंतु दूसरी ओर गरीबी बढ़ती जा रही है। आखिर विविधता के आधार क्‍या है इसका चिंतन हमें शोध करते समय करना चाहिए। विश्‍वविद्यालय के स्‍त्री अध्‍ययन विभाग की प्रो. वासंती रमण का कहना था कि आज हम जिसे समाज विज्ञान कहते है उसका विकास पश्चिम में हुआ है। समाज विज्ञान में शोध के लिए इतिहास समझना आवश्‍यक है। पश्चिमीकरण से औपनिवेशवाद के साथ ज्ञान भी आता है उस दौर की बात है कि देशजवाद अच्‍छा है बाकि फेंक दो लेकिन वही पुराना समय हमें आज भाषा की तरफ ले जाएगा। समाज में परिवर्तन के लिए संपूर्णता को समझना होगा।
आवासीय शिक्षक प्रो. दूधनाथ सिंह का मानना था कि हमारे समाज में कितना अंतर्विरोध और विविधता है। एक उपन्‍यास में लिखा ‘’साधु हाथी पर चढ़कर आया’’ कुंभ में साधु हाथी पर चढ़कर नहाने जाते, गहन शोधकर्ता में स्‍वाध्‍याय होना चाहिए। प्रेमचंद के उपन्‍यासों में शव के निदान से पहले भूख का जो उल्‍लेख है इससे हमारे समाज की भयावह स्थिति स्‍पष्‍ट होती है। स्‍वागत वक्‍तव्‍य में प्रतिकुलपति प्रो. ए. अरविंदाक्षन ने कहा कि शोध एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। विश्‍वविद्यालय का यह आयोजन इस दिशा में अध्‍यापक और शोधार्थियों को एक नयी दिशा प्रदान करेगा।  कार्यक्रम का संचालन सह-संयोजक एक दूरशिक्षा विभाग के सहायक प्रोफेसर अमित राय ने किया तथा मंचासीन अतिथियों एवं उपस्थि‍तों का आभार संयोजक रवीन्‍द्र बोरकर ने माना। कार्यक्रम में विश्‍वविद्यालय के अध्‍यापक, प्रतिभागी समेत शोधार्थी बड़ी संख्‍या में उपस्थित थे। 

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