गुरुवार, 18 जुलाई 2013

दिनेश कुशवाह में विलक्षण नागरिक बोधः दामोदर मिश्र


बीसवीं शताब्दी की सांध्यवेला में हिंदी में जो कवि तेजी से उभरे, उनमें दिनेश कुशवाह अन्यतम हैं। यह कहना है आलोचक डा. दामोदर मिश्र का। डा. मिश्र महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कोलकाता केंद्र में पाखी के जून अंक में प्रकाशित दिनेश कुशवाह की कविता उजाले में अजानबाहु पर आयोजित अंतरंग संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे। श्री मिश्र ने कहा कि दिनेश कुशवाह अपनी इस कविता में नई सामाजिक व राजनीतिक चेतना और नया सौंदर्यबोध लेकर आते हैं। वे गहरे अर्थ में प्रतिबद्ध कवि हैं और उनकी प्रतिबद्धता की जड़ें ठेठ भारतीय आबोहवा और जमीन में हैं। दिनेश कुशवाह में विलक्षण नागरिक बोध है। वह बोध एक ऐसी संस्कृति है जो रक्त में दौड़ती है और भीतरी संघर्ष का पर्यावरण रचती है। इस तरह जीवन के पक्ष में बने रहकर अपने लिखे जाने के बाद भी तात्पर्यपूर्ण बनी रहती है।
मिश्र ने कहा कि दिनेश की कविता संपूर्ण जीवन की कविता है। वे साधारण की असाधारणता को खोजते हैं। दिनेश कुशवाह की कविता उनका पक्ष है जो गैर बराबरी, अन्याय और शोषण का शिकार हैं। गैर बराबरी, अन्याय तथा शोषण का प्रतिरोध करते हुए हाशिए को लोगों से दिनेश कुशवाह अपना सरोकार जोड़ते हैं। अपने समय के उलझावों को पहचानने और उससे सामना करने का विलक्षण साहस दिनेश कुशवाह ने इस कविता में दिखाया है। उनकी कविता में कठिन समय में भी जीवन का प्रसार है। बीज वक्तव्त देते हुए डा. कृपाशंकर चौबे ने कहा कि दिनेश कुशवाह की इस कविता का स्थापत्य उनकी पूर्ववर्ती कविताओं से अलग है। दिनेश कुशवाह की कविता समय और सन्दर्भ के साथ संबंध रखने वाली सभी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक प्रवृत्तियों का समुच्चय है। भूमंडलीकरण के इस दौर में जब भोगा हुआ यथार्थ की जगह बदला हुआ यथार्थ है और वह यथार्थ भयावह फैंटेसी में तब्दील हो रहा है,  ऐसे में दिनेश कुशवाह की कविता सर्वहारा के पक्ष में गवाही है।
हिंदी भाषा साहित्य के प्राध्यापक, लेखक व अनुवादक डा. सत्यप्रकाश तिवारी ने कहा कि दिनेश कुशवाह के लिए कविता न सिर्फ रचने-बचने का एक मात्र सहारा है, बल्कि मननशील मनुष्य होने तथा एक-दूसरे को निकट लाने की आश्वस्ति तथा संभावना भी है। उन्होंने कहा कि दिनेश कुशवाह की अप्रतिम कलात्मक कोशिश उन्हें एक अलग काव्य व्यक्तित्व प्रदान करती है। उनके यहां जीवन, प्रकृति और जगत के पुनर्सृजन की जितनी मौलिक चेष्टा दिखती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। संगोष्ठी के बाद दूसरे सत्र में बर्दवान विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डा. विद्याधर मिश्र से डा. हरिश्चंद्र मिश्र व अन्य ने संवाद किया।

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