हिंदी वि.वि. के इलाहाबाद केंद्र में प्रेमचंद की रचनाओं पर हुई गोष्ठी
‘महाजनी सभ्यता’ और ‘मंगलसूत्र’ प्रेमचंद की अंतिम
दौर की रचनाऍं हैं। महाजनी सभ्यता के दो महत्वपूर्ण सूत्र हैं- पहला ‘समय ही धन है’ और दूसरा ‘विजनेस इज बिजनेस’। यह निबंध प्रेमचंद
ने मध्य वर्ग के चरित्र की गिरावट की पूर्व संध्या में लिखा। पहले सूत्र का सार तत्व
है-लूट और दूसरे सूत्र का तात्पर्य मानवीय संबंधों का क्षरण है। सन् 1936 तक प्रेमचंद हृदय
परिवर्तन कराते हैं, निहित स्वार्थ को छोड़ना सिखाते हैं, वर्ग संघर्ष की जगह
वर्ग समन्वय की बात करते हैं, औपनिवेशिक दासता से मुक्ति में सभी की
भागीदारी होना जरूरी मानते हैं। निजी और सार्वजनिक जीवन में खुले चरित्र का
निर्माण चाहते हैं। ‘मंगलसूत्र’ संबंधों के क्षरण की कथा है। मध्यवर्ग
का समझौतावादी चरित्र उजागर होता है इस रचना में। सोवियत यूनियन की एकता ही
प्रेमचंद का मंगलसूत्र है। उक्त बातें मुख्य अतिथि के तौर पर हिंदी विश्वविद्यालय
के आवासीय लेखक वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह ने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय
हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के इलाहाबाद
क्षेत्रीय केंद्र द्वारा आयोजित कार्यक्रम ‘महाजनी सभ्यता और मंगलसूत्र के हवाले से
देश की बात’
में
कहीं।
कार्यक्रम की
अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ कथाकार एवं विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय
ने कहा कि इन दोनों रचनाओं को फिर से पढ़ने का मौका मिला और मैंने पाया कि प्रेमचंद
अपनी दोनों रचनाओं में एक सैद्धांतिकी गढ़ रहे थे, प्रेमचंद में विचार और करूणा दोनों का
समन्वय था। प्रेमचंद अपने लेखन के विकास क्रम में अंत में काफी कुछ बदलाव महसूस कर
रहे थे, अंत में कुछ बदल रहा
था। पूंजीवाद की गहरी समझ उनमें थी। पूंजीवाद गहरे संकट में था। समाजवाद में
उन्हें आशा की किरण दिखाई दे रही थी, वे अपने अंतिम दौर में गांधीवाद से
मुक्त होकर वैज्ञानिक चेतना की ओर अग्रसर हो रहे थे।
मुख्य वक्ता
इतिहासकार लालबहादुर वर्मा ने अपने वक्तव्य में कहा कि, पूंजीवाद केवल अर्थव्यवस्था
नहीं वह सभ्यता भी है। शासितों को यथासंभव वश में रखना उसकी नियति है। जन की
मानसिकता को बदलना और उनमें अजनबियत बढ़ाना उसका कार्य-व्यापार है। मार्क्स का कहना
था कि बेहतर समाज से बेहतर इंसान पैदा होता है। किंतु पूंजीवादी व्यवस्था समाज को
ही भ्रष्ट करती है। दिशाहीन करती है। अपनी दुर्दशा और वंदना से हम संतुष्ट होते
जा रहे हैं। पूंजीवाद का नारा है कि दुनिया विकल्पहीन हो गयी है। हम सब बाजार में
खड़े हैं। हमसे हमारी निजता खोती जा रही है और प्रेमचन्द ने संकेत किया है कि
पूंजीवादी व्यवस्था से ज्यादा खतरनाक है महाजनी सभ्यता। पूंजीवादी व्यवस्था ‘राजा बालि’ की तरह है जो दुश्मनों
की आधी ताकत छीन लेता है।
अन्य वक्ता कथाकार
श्री शकील सिद्दीकी ने कहा कि प्रेमचंद के चिंतन का फलक विराट है। उनके दृष्टिकोण
और सरोकार में अंतरराष्ट्रीयता है। कार्पोरेट संस्कृति में समय ही धन है, चरितार्थ हो रहा है।
वही महाजनी सभ्यता का बीज वक्तव्य है। प्रो.ए.ए. फातमी ने अपनी बात रखते हुए कहा
कि आज दौलत की हुकुमत है। कबीर और गालिब भी कभी बाजार की बात करते थे, किन्तु उनके सरोकार
भिन्न थे।
कार्यक्रम की शुरूआत
में कार्यक्रम के संयोजक एवं क्षेत्रीय केंद्र के प्रभारी प्रो.संतोष भदौरिया ने
कहा कि भूमंडलीकरण के इस कठिन दौर में संवेदनहीनता बढ़ रही है। बाजार संचालित
व्यवस्था में हम सभी बाजार में खड़े कर दिए गए हैं। इस बाजार का किसी भी देश के
आवाम से कोई आत्मीय रिश्ता नहीं होता है। बोलो तुम क्या-क्या खरीदोगे की तर्ज पर
यह समस्त दुनिया को भ्रमित कर अपना स्वार्थ साध रहा है। ऐसे वक्त में प्रेमचंद की
दोनों रचनाएँ हमें कुछ रास्ता सुझा सकती हैं।
कार्यक्रम का संयोजन, संचालन व धन्यवाद
ज्ञापन क्षेत्रीय केंद्र के प्रभारी प्रो. संतोष भदौरिया द्वारा किया गया।
क्षेत्रीय निदेशक पीयूष पातंजलि ने अतिथियों का स्वागत किया।
गोष्ठी में प्रमुख
रूप से ज़िया भाई, सतीश अग्रवाल, सुधांशु मालवीय, मार्तण्ड सिंह, असरार गांधी, बी.एन.सिंह, मीना राय, अशोक सिद्धार्थ, अनीता गोपेश, रविनंदन सिंह, अनिल रंजन भौमिक, विवेक सत्यांशु, नीलम शंकर, हरीशचन्द पाण्डेय, जयकृष्ण राय तुषार, नन्दल हितैषी, फखरूल करीम, जेपी मिश्रा, अविनाश मिश्र, श्रीप्रकाश मिश्र, हितेश कुमार सिंह, इम्तियाज अहमद गाज़ी, नीलाभ राय, पूर्णिमा मालवीय, फज़ले हसनैन, सुनीता, सत्येन्द्र सिंह, शिवम सिंह सहित तमाम साहित्य प्रेमी उपस्थित रहे।
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