मध्य भारत में आदिवासी अशांति : कारण, चुनौतियां और संभावनाएं विषय पर हिंदी विवि में दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का दूसरा दिन
शिक्षा से होगा आदिवासी समुदाय का विकास
महात्मा गांधी
अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में मानवविज्ञान विभाग द्वारा भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद तथा इंदिरा
गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित दो दिवसीय (26
व 27 अगस्त) राष्ट्रीय संगोष्ठी के में विभिन्न अकादमिक सत्रों में देशभर से
आए मानवविज्ञानी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा शोधार्थियों ने शोध पत्र
प्रस्तुत कर आदिवासी समुदाय के विकास की दिशा में अपने मंतव्य रखे। वक्ताओं की
राय थी कि आदिवासी समुदाय के विकास के लिए विकास की नीतियां और क्रियान्वयन में तालमेल
होना चाहिए ताकि उनमें व्याप्त अशांति को विकास की दिशा में मोड़ा जा सके। वक्ताओं
ने माना कि शिक्षा ही आदिवासी समुदाय के उन्नयन के लिए प्रभावी होगी।
राष्ट्रीय
संगोष्ठी के उदघाटन के बाद हबीब तनवीर सभागार में आदिवासी आंदोलन पर केंद्रित प्रथम
सत्र मानवविज्ञानी प्रो. नदीम हसनैन की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। सत्र के सह-अध्यक्ष
थे पुणे विश्वविद्यालय के डॉ. रामदास जी. गंभीर। सत्र में हैदराबाद विश्वविद्यालय
के प्रो. आर. शिव प्रसाद ने विशेष व्याख्यान दिया। इस सत्र में अखिल भारतीय सोशल
फोरम के समन्वयक सुपरिचित सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. सुरेश खैरनार,
रायपुर के पत्रकार ललित सुरजन, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली के
डॉ. जोसेफ बारा, सामाजिक कार्यकर्ता प्रफुल्ल सामंतारा,
विश्वविद्यालय के मानवविज्ञान विभाग के
सहायक प्रोफेसर डॉ. निशीथ राय, सहायक प्रोफेसर डॉ. वीरेन्द्र प्रताप यादव आदि ने शोध प्रपत्र प्रस्तुत
किये।
विशेष
व्याख्यान में प्रो. शिव प्रसाद ने आदिवासियों के विकास में प्राकृतिक स्रोत,
गरीबी और साधनों पर प्रकाश ड़ाला। उनका कहना था कि बड़ी-बड़ी परियोजनाओं में सबसे
अधिक प्रभावित आदिवासी ही होते हैं। विकास और पुनर्वास में एक प्रकार का विरोधाभास
नज़र आता है। उन्होंने हरित क्रांति और उसका आदिवासी जीवन पर प्रभाव तथा 1991के
बाद के घटनाक्रम पर विस्तार से चर्चा की। डॉ. सुरेश खैरनार ने नागपुर शहर के
आसपास के 150 किलोमीटर के दायरे में सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक परिस्थिति का जिक्र
करते हुए कहा कि इस क्षेत्र में सम्पदा के अधिकार का क्रियान्वयन होना चाहिए।
जिनकी जमीन किसी परियोजना में चली जाने पर वें शहर की तरफ भागते हैं। जमीन पर
निर्भर आदिवासी में अशांति पैदा होती है।
पत्रकार ललित सुरजन ने माना कि पिछले 50 वर्षों में आदिवासियों की
सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक स्थिति बदल गयी है। शिक्षा के लिए जो लोग शहर आ रहे है वे
अब गांव की तरफ मुड़कर नहीं देख रहे हैं। नीति निर्धारण और कार्यान्वयन में काफी
अंतर आया है। डॉ. जोसेफ बारा ने कहा कि आदिवासी क्षेत्र के विकास में उद्योग,
संचार, बिजली और सभी प्रकार की मूलभूत सुविधाओं की आवश्यकता
है। उन्होंने कहा कि 1964 में पं. जवाहरलाल नेहरु ने आदिवासी विकास का जो मॉडल
सुझाया था उसे कारगर तरीके से अमल में नहीं लाया जा सका। डॉ. निशीथ राय ने नक्सलवाद
और आदिवासी अशांति विषय पर पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन के माध्यम से अपनी बात रखी।
प्रो. वीरेन्द्र प्रताप यादव ने मध्य भारत में जनजातीय असंतोष का इतिहास और कारण
: एक मानवशास्त्रीय विश्लेषण विषय पर शोध पत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने गुजरात,आसाम, झारखंड और छत्तीसगड़ में व्याप्त अशांति पर
चर्चा की।
संगोष्ठी
का दूसरा अकादमिक सत्र जमीन और औद्योगिकीकरण पर आधारित था। इस सत्र की अध्यक्षता
प्रो. वेंकट राव ने की। डॉ. एस. मुण्डा सत्र के सह-अध्यक्ष थे। सत्र में जे. जे.
रॉय बर्मन, डॉ. रामदास गंभीर,
शिल्ला डहाके, डॉ. सी. साहु,
डॉ. विजय प्रकाश शर्मा, प्रो. बी. एम. मुखर्जी,
डॉ. प्रभात के. सिंह,डॉ. चंपक कुमार साहु तथा डॉ. प्रेरणा ए.पी. सिंह ने प्रपत्र पढ़े।
संगोष्ठी के दूसरे
दिन मंगलवार को राजनैतिक धार्मिक कारण और सरकारी नीतियां विषय पर चर्चा हुई। सत्र
की अध्यक्षता प्रो. आर. शिवप्रसाद ने की। इस दौरान जे. जे. बर्मन और प्रभात कुमार
सिंह मंचासीन थे। सत्र में प्रो. विजय रमण,
महेंद्रकुमार मिश्रा,जी. पी. मिश्रा,
डॉ. एस. एन. मुण्डा, सपन कुमार कोले, के.
एन. र्श्मा, जोशी रूफिना तिर्कि,
जी. एन. झा, जितेन्द्र कुमार प्रेमी,पयंक
प्रकाश, मनीष कुमार टुडू,
दिव्य भारती, रवि कुमार आदि ने शोध पत्र प्रस्तुत किये। सत्र
का संयोजन सहायक प्रोफेसर अनिर्बाण घोष तथा आशुतोष कुमार ने किया। इस दौरान देशभर
के विभिन्न विश्वविद्यालयों से आए करीब 70 प्रतिभागी,
मानवविज्ञानी, सामाजिक कार्यकर्ता, सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी तथा शोधार्थी व
छात्र-छात्राएं बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
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