बुधवार, 27 फ़रवरी 2013
सोमवार, 25 फ़रवरी 2013
सूचना के युग में मानचित्रण का महत्व बढ़ाः डा पृथ्वीश नाग
देश के सुप्रसिद्ध भूगोलविद और महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के कुलपति डा.
पृथ्वीश नाग ने कहा है कि सूचना तकनीक के युग में मानचित्रण का महत्व बहुत बढ़ गया
है। डा. नाग आज महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कोलकाता
केंद्र में मानचित्रण का इतिहास विषय पर व्याख्यान दे रहे थे। उन्होंने कहा कि
मोबाइल जैसे उत्तर आधुनिक संचार उपकरणों में मानचित्रण के माध्यम से दैनिक उपयोग
की सारी सूचनाएं जल्द ही सर्वसुलभ होने लगेंगी। मसलन जिस इलाके का मानचित्र
प्रेक्षक देखेगा, उसे उस अंचल की सभी सूचनाएं यथा अस्पताल, स्कूल, पुलिस थाने एवं
रास्तों की जानकारी मिल जाएगी। यहां तक कि उसे रेस्टोरेंट के मेनू, अस्पताल में
चिकित्सकों की उपलब्धता की सूचना भी मिल जाएगी। उन्होंने कहा कि मानचित्रण अक्षांस
देशांतर के हिसाब से चलता है। हर मानचित्र का अपना उद्देश्य होता है। उन्होंने कहा
कि आज डिजिचल मानचित्र तकनीकी दृष्टि से बहुत समृद्ध हैं किंतु प्राचीन काल के
मानचित्र कलात्मक हुआ करते थे।
डा. नाग ने सैकड़ों वर्षों के
मानचित्रण के इतिहास को पावर प्वाइंट के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए दिखाया कि
मध्यकाल के मानचित्रों का रुझान वाणिज्यिक यात्राओं की सूचनाओं के आधार पर तैयार
किया जाता था जो परवर्ती काल में सूचनाओं की उपलब्धता के कारण आधुनिक मानचित्र की
शक्ल लेने लगा। उन्होंने कहा कि मध्यकालिक मानचित्रों में कई कमियां रह जाती थीं
किंतु आधुनिक लेजर तकनीक के कारण आज किसी भी स्थान का वास्तविक मानचित्र उपलब्ध
होने लगा है जो आभासी त्रिआयामी ऊंचाई-निचाई और यहां तक कि उर्ध्वाधर एवं क्षैतिज
अवैध निर्माण को भी चिन्हित करता है। डा. नाग ने बताया कि अली बंधुओं एवं
अंग्रेजों के बीच मैसूर की लड़ाई में सबसे पहले विश्व में राकेट के प्रक्षेपण की घटना
हुई थी। उसी का विकसित रूप आज के प्रक्षेपास्त्रों में देखा जा सकता है। उन्होंने
बताया कि हैदर बंधुओं के राकेट प्रक्षेपण की तस्वीर नासा की चित्र दीर्घा में लगी
हुई है। व्याख्यान के बाद डा. नाग से संवाद कार्यक्रम हुआ। साहित्य के अध्येता
शिवप्रिय के प्रश्न के उत्तर में डा. नाग ने कहा कि कंप्यूटर की गणनाओं पर आधारित
आज की आक्रात्मक सूचनाओं और प्राचीन काल के भारतीय मनीषियों द्वारा ईजाद की गई
गणना पद्धतियों में अद्भुत समानता देखी जा सकती है। वरिष्ठ साहित्यकार डा.
प्रमथनाथ मिश्र के सवाल के जवाब में डा. नाग ने कहा कि भारत के किसी भी प्रामाणिक
मानचित्र के लिए सर्वे आफ इंडिया के जारी किए गए मानचित्र प्रयोग में लाए जाने
चाहिए। काचरापाड़ा कालेज की हिंदी विभागाध्यक्ष सुनीता मंडल के सवाल के जवाब में
उन्होंने कहा कि मानचित्रण के दुरुपयोग की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता। इस
अवसर पर विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन में भूगोल के एसोसिएट प्रोफेसर डा.
गोपाल चंद्र देवनाथ ने मानक मानचित्र बनाए जाने की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने
बताया कि बोलपुर का मानक मानचित्र बनाया जा रहा है। कार्यक्रम का संचालन जेके
भारती ने और स्वागत भाषण तथा धन्यवाद ज्ञापन डा. कृपाशंकर चौबे ने किया। इस
कार्यक्रम में बंगाल के विभिन्न विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी तथा शोधार्थी
उपस्थित थे। इस विशेष व्याख्यान कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार हरिराम
पांडेय ने की।
शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013
हिंदी विश्वविद्यालय
में विश्व मातृभाषा दिवस पर संगोष्ठी का आयोजन
हाशिए की भाषाओं को
बचाने की जरूरत – प्रो. देवराज
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में विश्व मातृभाषा दिवस (दि. 21
फरवरी) के उपलक्ष्य में ‘भाषाओं और भाषाई विविधता को बढ़ावा व सुरक्षा देने के
लिए सूचना और संचार प्रौद्योगिकी का उपयोग’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में अनुवाद
एवं निर्वचन विद्यापीठ के अधिष्ठाता प्रो. देवराज ने कहा कि हमें हाशिए की भाषाओं
को बचाने की आवश्यकता है। मातृभाषा को बचाना ही संस्कृति को बचाना है। मनुष्य
को बचाने के लिए भाषा और बोलियों को जीवित रखना जरूरी है।
विश्वविद्यालय के हबीब तनवीर सभागार में
आयोजित परिचर्चा की अध्यक्षता मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ के अधिष्ठाता
तथा संचार एवं मीडिया अध्ययन केंद्र के अध्यक्ष प्रो. अनिल कुमार राय अंकित ने
की। इस अवसर पर प्रमुख वक्ता के रूप में हिंदी समयडॉटकॉम के प्रभारी राजकिशोर
उपस्थित थे। प्रो. देवराज ने विभिन्न भाषाओं और बोलियों में लिखे गये साहित्य और
इतिहास का संदर्भ लेते हुए अपनी बात रखी। उनका कहना था कि हमारा जीवन ही बोलियों
में है। हमारी लोकसंपदा, लोकशिल्प, लोकसंगीत और लोकचिकित्सा भी उन बोलियों और
भाषाओं में सुरक्षित है, जो आज के दौर में हाशिए पर हैं। सभी मातृभाषाएं आपस में प्यार
और एक दूसरे को जोड़ने की बात करती है। अपने सारगर्भित वक्तव्य में उन्होंने
उत्तर पूर्व के राज्यों की भाषाओं एवं बोलियों पर विस्तार से प्रकाश डाला। मुख्य
वक्ता के रूप में राजकिशोर ने कहा कि छोटे-छोटे समूहों को अपने निकट के बड़े समूहों
में विलयित हो जाना नहीं आता होता, तो सभ्यता का विकास नहीं होता। बड़ी भाषाएं
छोटी भाषाओं को नहीं मार सकती, जब तक छोटी भाषाएं खुद आत्महत्या के लिए तैयार न
हो। उन्होंने तर्क दिया कि हर भाषा को संख्या बल चाहिए, लेकिन संख्या हमेशा
शक्ति के रूप में परिवर्तित नहीं हो सकती। उन्होंने कहा कि हर भाषा का अपना अर्थशास्त्र
होता है। जहां यह अर्थशास्त्र नहीं बचता वहां उस भाषा का शोकगीत लिखने की शुरूआत
हो जाती है। अध्यक्षीय उदबोधन में प्रो. अनिल के राय अंकित ने कहा कि हमारी
भाषाएं 8 वीं अनुसूची तक ही सीमित हैं। संख्या बल से भाषा नहीं बच सकती उसे शक्ति
चाहिए। उन्होंने कहा कि राजनीतिकरण और बाजारीकरण के चलते बोली, भाषाएं नहीं बच
सकती। अंत में उन्होंने भाषाओं को बचाने के लिए वैज्ञानिक आधार बनाए जाने पर बल
दिया। कार्यक्रम का संचालन एवं धन्यवाद ज्ञापन हिंदी अधिकारी राजेश यादव ने किया।
अतिथिओं का स्वागत बहुवचन के संपादक अशोक मिश्र और असिस्टेंट प्रोफेसर अनिल
कुमार दुबे ने किया।
बुधवार, 20 फ़रवरी 2013
अब नहीं बदलेगी चार कोस पर बानी!
राजेश यादव
किसी भी राष्ट्र या समाज के लिए
मातृभाषा अपनी पहचान की तरह होती है। जन्म लेने के बाद मानव जो प्रथम भाषा सीखता
है उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं। समाज की संस्कृति और सभ्यता की जान उसकी भाषा में
ही बसी होती है। आज दुनियाभर में सैकड़ों भाषाएं समाप्ति के कगार पर हैं। दरअसल, भाषाएं
आधुनिकीकरण के दौर में प्रजातियों की तरह विलुप्त होती जा रही हैं। दुनिया की तमाम
भाषाएं, जो हजारों वर्षों से अस्तित्व में हैं और कहीं न कहीं आज भी
अनेक समाजों की अभिव्यक्ति को शब्द देती हैं और विभिन्न मानव समुदायों की
सांस्कृतिक पहचान हैं, उनके अस्तित्व को खतरा हमारी पूरी स्मृति को
खतरा है। मानव सभ्यता का इतिहास इस बात का गवाह है कि सभ्यताएं अपने वर्चस्व के
लिए हथियारों के साथ विचारधारात्मक उपादानों का भी सहारा लेती रही हैं। किसी भाषा
का खत्म होना, उस समाज का वजूद मिट जाना है, उस समाज की
संस्कृति और सभ्यता का इतिहास के पन्नों में सिमट जाना है.। आज विश्व में ऐसी कई
भाषाएं और बोलियां हैं जिनका संरक्षण आवश्यक है। संरक्षण की चिंता इसलिए जरूरी है, क्योंकि ये
हमारी विरासत का एक भाग है। मातृभाषा में जो भी कुछ सुंदर और श्रेष्ठ रचा जा रहा
है, उसे सहेज कर रखा जाना चाहिए। पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान
बांग्लादेश) में पाकिस्तान सरकार द्वारा उर्दू थोपे जाने के विरोध में 21 फरवरी, 1952 को
ढाका में छात्रों ने अपनी मातृभाषा बांग्ला के पक्ष में जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन
किया , जिसमें पुलिस और सेना की गोली से बड़ी संख्या में
प्रदर्शनकारी मारे गए। अपनी मातृभाषा को लेकर इस तरह के प्रेम और जज्बे की दूसरी
मिसाल मिलना मुश्किल है। मातृभाषा के सवाल से शुरू हुआ यही आंदोलन बाद में
बांग्लादेश की मुक्ति के आंदोलन में बदल
गया। अपनी मातृभाषा के हक में लड़ते हुए मारे गए शहीदों की ही याद में संयुक्त
राष्ट्र महासभा ने 17 नवंबर 1999 में दुनिया की उन भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन
की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए प्रति वर्ष 21 फ़रवरी को अंतरराष्ट्रीय
मातृभाषा दिवस मनाने का निश्चय किया गया और संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा औपचारिक
रूप से प्रस्ताव पारित कर 2008 में इसे मान्यता दी गई। मातृभाषा दिवस' मनाने का
उद्देश्य निर्धारित किया गया- विश्व में भाषाई और सांस्कृतिक विविधता और
बहुभाषिकता को बढ़ावा देना।
वजूद खो रही हैं भारत की 196 लोकभाषाएं
भारत के बारे में कहा जाता है कि
यहां ‘कोस कोस पर बदले पानी, चार कोस पर बानी!’ लेकिन अब यह कहावत बदल सकती है। संयुक्त राष्ट्र
के आंकड़ों के अनुसार भारत में 196 लोक भाषाएं लुप्त होने को हैं। भारत के बाद
दूसरे नंबर पर अमेरिका में स्थिति काफी चिंताजनक है जहां ऐसी 192 भाषाएं दम तोड़ती
नजर आ रही हैं। एक अनुमान के अनुसार, दुनियाभर में 6900
भाषाएं बोली जाती हैं लेकिन इनमें से 2500 भाषाओं को चिंताजनक स्थिति वाली भाषाओं
की सूची में रखा गया है। भारत में खत्म होने वाली भाषाओं में से ज़्यादातर
क्षेत्रीय और क़बीलाई बोलियां हैं। लोकभाषाओं की चिंता इसलिए ज़रूरी है कि ये हमारी
विरासत का एक भाग हैं और हमारी थाती हैं और इनमें जो भी कुछ सुंदर और श्रेष्ठ रचा
जा रहा है, उसे सहेजकर रखा जाना चाहिए।
और खत्म हो गई एक भाषा
फरवरी 2010 में अंडमान निकोबार द्वीप समूह की तक़रीबन
70 हज़ार साल से बोली जाने वाली एक आदिवासी भाषा का अस्तित्व खत्म हो गया। संस्था
सर्वाइवल इंटरनेशनल के मुताबिक़, अंडमान में रहने वाले बो क़बीले की आखिरी
सदस्य 85 वर्षीय बोआ सीनियर की मौत के साथ ही इस आदिवासी समुदाय की भाषा ने भी दम
तो़ड दिया। इसी के साथ इस समाज की संस्कृति और सभ्यता भी खत्म हो गई। ग्रेट अंडमान
में कुल 10 मूल आदिवासी समुदायों में से एक बो समुदाय की इस आखिरी सदस्य ने 2004
की सुनामी में अपना घरबार खो दिया था। वह स्ट्रैट द्वीप पर सरकार द्वारा बनाए गए
शिविर में ज़िंदगी के आखिरी दिन गुज़ार रही थीं। भाषाई विशेषज्ञों का मानना है कि बो
भाषा अंडमान में प्री-नियोलोथिक के व़क्त से इस समुदाय द्वारा बोली जा रही थी। अंडमान
पर रहने वाले आदिवासियों को चार वर्गों में बांटा जा सकता है-द ग्रेट अंडमानी, जारवा, ओंग और
सेंटिनीलीस. तक़रीबन 10 भाषाई समूहों में विभाजित ग्रेट अंडमान के मूल निवासियों की
आबादी साल 1858 में यहां ब्रिटिश कॉलोनी बनने तक 5500 से ज़्यादा थी। फिलहाल ग्रेटर अंडमान में 52 मूल निवासी बचे हैं।
लेकिन इनका वजूद भी खतरे में है।
ठेठ आदिवासी भाषाओं पर विलुप्ति का
खतरा
यूनेस्को की रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत में
ठेठ आदिवासी भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा बढ़ता ही जा रहा है। भारत के हिमालयी
राज्यों हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड आदि में तक़रीबन
44 भाषाएं-बोलियां ऐसी हैं, जो जनजीवन से ग़ायब हो रही हैं, जबकि ओडिसा, झारखंड, बिहार और
पश्चिम बंगाल में ऐसी तक़रीबन 42 भाषाएं खत्म हो रही हैं। 1961 की जनगणना के मुताबिक़, भारत में
1652 भाषाएं थीं, जो 2011 में घटकर महज़ 234 ही रह गईं। दुनिया
भर में स़िर्फ 65 भाषाएं ही ऐसी हैं, जिन्हें एक करो़ड
से ज़्यादा लोग बोलचाल में इस्तेमाल करते हैं।इनमें 11 भारतीय भाषाएं भी शामिल हैं।
इनमें से एक भाषा हिंदी भी है।
मातृभाषा की बदौलत ऊँचाइयों को छू
रहे
दुनिया के कई विकसित और विकासशील देश
मातृभाषा की बदौलत ऊँचाइयों को छू रहे हैं। जापान हमारे सामने इसका आदर्श नमूना
है। वह विश्व बाज़ार में एक आर्थिक और औद्योगिक शक्ति है और इस मुकाम तक वह अपनी
मतृभाषा की बदौलत पहुंचा है। दूसरी तरफ़ हम चीन का उदाहरण भी ले सकते हैं जो विश्व
पटल पर एक महा शक्ति बन कर उभरा है। अग़र उसके भी विकास के इतिहास को देखें तो
पाते हैं कि उसकी मातृभाषा मंदारिन का इसमें अहम योगदान है। अन्तर्राष्ट्रीय
मानचित्र पर अंग्रेज़ी के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। किन्तु वैश्विक दौड़ में
आज हिंदी कहीं भी पीछे नहीं है। यह सिर्फ़
बोलचाल की भाषा ही नहीं, बल्कि सामान्य काम से लेकर इंटरनेट तक के
क्षेत्र इसका प्रयोग बख़ूबी हो रहा है। हमें यह अपेक्षा अवश्य है कि ’क’ क्षेत्र के
शासकीय कार्यालयों में सभी कामकाज हिन्दी में हो। ’ख’ और ’ग’ क्षेत्र
में भी निर्धारित प्रतिशत के अनुसार हिन्दी का प्रयोग होता रहे। भूमण्डलीकरण के इस
दौड़ में देशों की भौगोलिक दूरियां मिटती जा रही है। समय और गति आज महत्वपूर्ण
होते जा रहे हैं। बाज़ार भाषा, व्यापार जगत का मापदण्ड होता जा रहा है। अतः
यह ज़रूरी है कि हम अपनी कमियों को समझें। अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये
योजनायें बनाएं। साथ ही भूमण्डलीकरण के वर्तमान परिवेश में अपनी संभानाओं को
विकसित करने के लिये प्रयत्नशील रहें। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा जरुर है लेकिन इसके
साथ ही हर क्षेत्र की अपनी कुछ बोलियां और भाषाएं भी है जिसे बचाकर रखना बेहद
जरुरी है। अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर जिस सवाल पर हमें गहराई से विचार करने
की आवश्यकता है, वह है- अपनी मातृभाषाओं की कीमत पर अंग्रेजी जैसी भाषा के आगे
घुटने टेकना कहां तक उचित है? मातृभाषाओं के विकास के लिए जरूरी है कि
सरकार बोलियों और छोटी भाषाओं में भी रोजगार के अवसर पैदा करे।
बाक्स
लुप्त होती भारतीय बोलियां
और भाषाएं
भाषा क्षेत्र बोलने वालों की संख्या
ग्रेट अंडमानी अंडमान
द्वीप समूह 05
जारवा अंडमान द्वीप समूह 31
ऑगे अंडमान द्वीप समूह 50
सेंतीनली अंडमान द्वीप समूह 50
हतंगम अंडमान द्वीप समूह 50
ताई रोंग अरुणाचल प्रदेश 100
ताई नोरा अरुणाचल
प्रदेश 100
शोम्पेन ग्रेट निकोबार
समूह 100
रूगा
मेघालय 100
वाहंडूरी हिमाचल प्रदेश 138
ना अरुणाचल
प्रदेश 350
म्रा अरुणाचल प्रदेश 350
लामोंज लिटिल निकारोबार द्वीप 400
कुंडल शाही पाक अधिकृत कश्मीर 500
पुरूम मणिपुर 503
कोरो अरुणाचल प्रदेश 800-1000
ताराओ मणिपुर 870
टोटो पश्चिम बंगाल 1000
मेच असम और पश्चिम बंगाल 1000
टोडा तमिलनाडू 1006
स्रोत : एटलस ऑफ
वल्ड्र्स लार्जेस्ट लैंग्वेज इन डेंजर , यूनेस्को प्रकाशन, पेरिस
गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013
हिंदी पट्टी की मीडिया की नजर में ‘हिंदी का दूसरा समय’
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय में दि. 1 से 5 फरवरी के दौरान ‘हिंदी का दूसरा समय’ कार्यक्रम का भव्य
आयोजन किया गया , जिसमें देशभर
से 150 से अधिक
साहित्यकार,समाजशास्त्री, पत्रकार, नाटककार तथा अभिव्यक्ति
के अन्य माध्यमों से जुडे चोटी के विशेषज्ञों ने सिरकत की । समारोह का उदघाटन 1 फरवरी को प्रात: 10 बजे अनुवाद एवं
निर्वचन विद्यापीठ के प्रांगण में बने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी सभागार में
प्रो. नामवर सिंह ने किया । समारोह की अध्यक्षता कुलपति विभूति नारायण राय ने की ।
इस अवसर पर विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रो. निर्मला जैन उपस्थित थीं। पूरे देश में
इस कार्यक्रम की चर्चा रही। देशभर की मीडिया ने इसे पर्याप्त जगह दी। उत्तर प्रदेश
की राजधानी से प्रकाशित प्रतिष्ठित अखबार डीएनए और आगरा से प्रकाशित कल्पतरू एक्सप्रेस
ने ‘हिंदी का
दूसरा समय’ कार्यक्रम
को प्रमुखता से प्रकाशित किया।
मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013
भाषा की जाति से हो रही है परेशानी- रघु ठाकुर
हिंदी विश्वविद्यालय में पांच दिवसीय हिंदी समय का समापन
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
में विगत पांच दिनों से चल रहे ‘हिंदी का दूसरा समय’ कार्यक्रम का आज मंगलवार को
समापन हुआ। इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में अपनी बात रखते हुए सुपरिचित समाजवादी
चिंतक रघु ठाकुर ने कहा कि आज मूल्यों का संकट है। शिक्षा का बाजारीकरण हो गया
है, पैसे का बोलबाला है। समाज में यह स्थिति पैदा हो गयी है कि आज कोई भी मां अपने
बेटे को भगतसिंह और बेटी को लक्ष्मीबाई नहीं बनाना चाहती। उन्होंने कहा कि हमें
जाति शब्द से परेशानी होती है चाहे वह भाषा की जाति हो या अन्य प्रकार की। इसे
मिटाने ने के लिए हमें आज के समय में कबीर से सीख लेनी चाहिए। कार्यक्रम की अध्यक्षता
विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति प्रो. ए. अरविंदाक्षन ने की। इस अवसर पर मंच पर
कार्यक्रम के संयोजक राकेश मिश्र, प्रेम कुमार मणि, राजेन्द्र राजन, प्रो. रामशरण
जोशी उपस्थित थे।
रघु ठाकुर ने कहा कि जिस समय लोहिया ने देश में
आंदोलन को सम्भाला था उस समय जाति और लिंग के बंटवारे से मुक्ति पाने की बात की
थी, क्या इससे बड़ी प्रगतिशिलता की कोई और बात हो सकती है। हिंदी भाषी राजनीति का
उल्लेख करते हुए रघु ठाकुर ने कहा कि नवसामंतवाद, नव-ब्राम्हणवाद जैसी कई
बीमारियां हिंदी राजनीति में पैदा हो गयी हैं, जिससे हमें बचाने का प्रयास करना
होगा। प्रेम कुमार मणि ने कहा कि हिंदी पट्टी में गतिशिलता और राजनीति पर आकलन
करनी ही रही होगी। हिंदी नवजागरण के बारे में उन्होंने कहा कि इसकी चर्चा सबसे
पहले डॉ. राम विलास शर्मा के यहां मिलती है। उनका कहना था कि गांधी जी ने हिंदी
पट्टी वालों से पूछा था कि आपके यहां कोई टैगोर क्यों नहीं हुआ। गांधी जी के इसी
सवाल में हिंदी की गतिशीलता का सवाल भी छिपा हुआ है। हिंदी का दूसरा समय को
लोकप्रियता और प्रगतिशीलता से जोड़ते हुए राजेन्द्र राजन ने भी अपनी बात डॉ.
रामविलास शर्मा के हवाले से कही। डॉ. प्रेम सिंह ने जायसी की पक्तियों का उल्लेख
करते हुए कहा कि प्रगतिशीलता ने दो तरह की राजनीति पैदा की है, यह कुछ को बाहर कर
देती है और कुछ को अपने साथ शामिल कर लेती है। समापन समारोह की अध्यक्षता करते
हुए प्रो. अरविंदाक्षन ने कहा कि इन पांच दिनों में आए विद्वानों के बीच से बहुत
सार्थक विचार आए, यही नहीं हिंदी का दूसरा समय इस मामले में भी
सार्थक कहा जाएगा कि इसमें देशभर के साहित्यकारों ने शिरकत कर इसे सफल बनाया। उन्होंने
कहा कि इस कार्यक्रम में ऐसा कुछ है जो हमें आगे चलने के लिए प्रेरित कर रहा है।
उन्होंने इच्छा जाहिर की कि तीसरे समय में हम आम लोगों के लिए हिंदी में सामग्री
उपलब्ध कराने की कोशिश करें, ताकि उनको कुछ ऐसा दिया जा सके जिससे एक नई सोच और
वैचारिकता विकसित हों। कार्यक्रम के
संयोजक राकेश मिश्र ने इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए देश भर से पहुंचे साहित्यकारों,
पत्रकारों, आंदोलनकारियों और राजनीतिक चिंतकों के प्रति आभार व्यक्त किया।
कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए विश्वविद्यालय के परिसर विकास विभाग, वित्त विभाग
एवं अन्य समितियों ने पूरी जिम्मेदारी के साथ अपने कर्तव्य का निर्वहन किया।
कार्यक्रम का संचालन संचार एवं मीडिया अध्ययन केंद्र के प्रो. रामशरण जोशी ने
किया। समापन पर देश भर से आए बुद्धिजीवी, विश्वविद्यालय के छात्र, अध्यापक,
कर्मचारी आदि उपस्थित थे।
हिंदी विश्वविद्यालय में ‘भारतेन्दु चरित नाटक’ का मंचन
‘छात्र रंग-मंडल’ के छात्रों की प्रस्तुति
“हिन्दी का दूसरा समय” इस पांच दिवसीय समारोह में दूसरे दिन सांस्कृतिक
संध्या के अंतर्गत लेखक अजित पुष्कल द्वारा लिखित ‘भारतेन्दु चरित’ नाटक की प्रस्तुति की गई। नाट्यकला एवं फिल्म
अध्ययन विभाग के संरक्षण में गठित ‘छात्र रंग-मंडल’ की यह प्रथम प्रस्तुति थी, जिसका निर्देशन विभाग के शोध-छात्र अश्विनी कुमार सिंह ने किया। हिन्दी विश्वविद्यालय का सपना देखने वाले
तथा हिन्दी भाषा और साहित्य के पुरोधा ‘भारतेन्दु हरिश्चंद्र’ को समर्पित यह प्रस्तुति अत्यंत सराहनीय रही।
नाटक मे भारतेन्दु के रचनात्मक संघर्ष और जीवन पद्धति को दिखाने का कुशल
प्रयास किया गया। इस दृष्टि से नाटक की भाषा और परिवेश का विशेष ध्यान रखा गया।
नाटक की हर घटना, भारतेन्दु की मस्ती, प्रेम, चिंतन, सुधार, जीवन पद्धति और संघर्ष को सामने रखती है ताकि समग्रता मे उनके व्यक्तित्व को
पहचाना जा सके। प्रस्तुति के दौरान हिन्दी के वरिष्ठ साहित्यकार नामवर सिंह, डॉ. निर्मला जैन, ममता कालिया, काशीनाथ सिंह, से. रा. यात्री, संजीव आदि अनेक विद्वानों सहित प्रो. सुरेश शर्मा, डॉ. विधु खरे दास, डॉ. सतीश पावडे, रयाज हसन तथा विश्वविद्यालय के
शिक्षक और विद्यार्थी उपस्थित थे। सभी ने नाटक की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुए
छात्र रंग-मण्डल को अपनी शुभकामनाएँ दी ।
नाटक मे नाट्यकला एवं फिल्म अध्ययन विभाग से भारतेन्दु- चैतन्य आठले, मल्लिका- रश्मि पटेल, साहित्य विभाग की छात्रा- मेघा दत्त, मुनीम- यदुवंश, कपड़ावाला- गजेंद्र पांडे,
प्रौद्योगिकी अध्ययन विभाग
से सूत्रधार- अरविंद रावत, स्त्री अध्ययन विभाग से मुंशी- श्याम प्रकाश, गायिका- आरती कुमारी, कोरस मे अभिलाषा श्रीवास्तव, सारंग, पूजा प्रजापति, अरुणिमा प्रियदर्शनी
ने सराहनीय भूमिकाएँ निभाई । कोरस संगीत- गजेंद्र कुमार पांडे तथा आडियो ध्वनि- संयोजन प्रवीण सिंह चौहान ने तैयार किया,
इसे रवि मुंढे ने सहयोग
किया। प्रकाश संयोजन- धर्मप्रकाश, वस्त्र विन्यास- सुनीता कुमारी थापा, रूप सज्जा- मनीष कुमार, सुनीता थापा, रंग-सामग्री प्रबंधन- अभिषेक कुमार, श्वेता क्षीरसागर का था। प्रस्तुति प्रबंधन एवं मंच
विन्यास- मनीष कुमार का था, जिन्हे अभिषेक कुमार, अक्षय कुमार ,गौरव मिश्र एवं अशोक
वैरागी ने सहयोग किया।
सोमवार, 4 फ़रवरी 2013
ललित कला में सांस्कृतिक संकट -विजय शंकर
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में आयोजित हिंदी का
दूसरा समय कार्यक्रम के चौथे दिन सोमवार को हिंदी प्रदेश में ललित कला विषय पर
आयोजित सत्र की अध्यक्षता करते हुए सुप्रसिद्ध कला मर्मज्ञ विजयशंकर ने कहा कि
ललित कला की सारी विधाओं जैसे चित्रकारी, संगीत, थिएटर इत्यादि में सांस्कृतिक संकट का सवाल बड़ी गहरायी तक
पहुंच गया है। ललित कला के विकसित हो जाने के प्रति भी दुख प्रकट किया। इसका कारण
खोजते हुए उन्होंने कहा कि ललित कलाओं से संबंधित लोगों का जुड़ाव व्यक्तिगत स्तर
तक की रहता है। उक्त विषय के अगले वक्ता गोपाल शर्मा ने कहा कि 18 वी शताब्दी
से लेकर अब तक थिएटर में जो परिवर्तन हुए हैं वे कम है। उन्होंने ग्रीक थियेटर, चीनी थियेटर के बारे में विचार प्रस्तुत किया। साथ ही उन्होंने
मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन से जुड़े संस्मरण को सुनाया। आनंद सिंह ने कहा
कि हिंदी प्रदेशों में खासकर मध्य प्रदेश में चित्रकला, मूर्तिकला की प्रदर्शनियाँ तो आयोजित होती है किंतु हिंदी
भाषी अन्य प्रदेशों जैसे कि उत्त्रप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ आदि में इसका अभाव है। साथ ही रंगमंच पर अपनी
चिंता जताते हुए कहा कि हिंदी के मौलिक नाटकों का प्लेटफार्म हिंदी भाषी प्रदेशों
में कम है। इसके अलावा इन क्षेत्रों में संग्रहालय तथा नाटय समारोहों की भी कमी
दिखायी देती है। विपिन चौधरी ने कहा कि
ललित कला का विकास लोक संस्कृति से ही होता है। हरियाणा, मालवा, राजस्थान आदि के गावों एवं
स्थानीय परिवेश की संस्कृति को देखते हुए ललित कला के विकास को बताया। हिंदी
प्रदेश में संगीत , साहित्य आदि की चिंता करते हुए
सुलभा कोरे ने कहा कि आज परंपरागत चित्रकारी, पेंटिंग कम दिख रही है।
मराठी, बंगाली, गुजराती आदि क्षेत्रो में चित्रकारी की समृद्ध परपंरा है।
वहां तरह-तरह के आयोजन किये जाते हैं किन्तु हिंदी प्रदेश इससे अछूता होता जा रहा
है। हिंदी रंगमंच की पीड़ा को प्रस्तुत करते हुए राजकुमार कामले ने कहा कि हिंदी
में नये नाटक नहीं लिखे जा रहे है और जिन नाटकों का मंचन प्रमुख रूप से किया जा रहा
है। वे विदेशी अनूदीत कृति के है।
इसके
अलावा उन्होंने ललित कला के परिप्रेक्ष्य में सरकार की उदासीनता को भी बताया।
हिंदी प्रदेश में ललित कला में हो रही भारी गिरावट पर चिंता जताई। उन्होंने लोगों
के अपनी संस्कृति, परंपरा एवं भाषा, बोली
आदि से कटते जाने को रेखांकित किया। कार्यक्रम का संचालन राकेश श्रीमाल ने किया।
कार्यक्रम में छात्र- छात्राएं एवं शोधार्थी बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
आज पैसे के लिए बनती हैं फिल्में – मोहन
आगाशे
वर्धा दि. 4 फरवरी 2013: महात्मा गांधी
अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में आयोजित हिंदी का दूसरा समय कार्यक्रम के
चौथे दिन (सोमवार) मुख्यधारा का सिनेमा सत्र में अध्यक्षीय टिप्पणी करते हुए मोहन
आगाशे ने कहा कि पहले लोग फिल्में समाज के लिए बनाते थे आज पैसा के लिए बनाते हैं।
मुख्यधारा के सिनेमा ने भाषा की संप्रेषणीयता, संवेदनशीलता, बिंबों, एवं प्रतीकों का बड़ी खूबी से व्याख्यायित किया
है। पहले जब फिल्म ट्रेनिंग स्कूल नहीं थे तब भी अच्छी फिल्में बनती थीं और आज भी
बन रही हैं। उन्होंने कहा कि भारत में जहां अशिक्षा है वहां फिल्म मनोरंजन तो करती
है लेकिन उसकी बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी भी है।
हबीब
तनवीर सभागार में आयोजित कार्यक्रम का संचालन सूत्र संभालते हुए प्रो. सुरेश शर्मा ने विस्तार से विषय पर प्रकाश डाला
प्रख्यात कथाकार धीरेंद्र अस्थाना ने कहा कि सिनेमा कहानी के घर में लौट रहा है।
उन्होंने कहा कि जो रचेगा वही बचेगा यह कहानी पर ही नहीं बल्कि सिनेमा पर भी लागू
होता है। सांस्कृतिक पत्रकार अजित राय ने कहा कि सब फिल्में महान हैं, विलक्षण हैं और इतिहास में दर्ज हो रही हैं।
उन्होंने कहा कि मुंबईया सिनेमा जिस तरह देश को बरबाद कर रहा है वह देखते ही बनता
है। यहां नकलची फिल्मकार अधिक हैं। राय ने जोर देकर कहा कि १९८० के बाद हिंदी
सिनेमा में एक भी ढंग की फिल्म नहीं बनी है विशेषकर हिंदी सिनेमा में जिसकी चर्चा
की जा सके। सिनेमा चिंतक प्रहलाद अग्रवाल ने कहा कि मैं १९५५ से लगातार हिंदी
सिनेमा देख रहा हूं लेकिन कभी भी निराश नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि सिनेमा उस आदमी
का माध्यम है जो थका हुआ है और उसका मनोरंजन करना आसान काम नहीं है। कमलेश पांडेय
ने कहा कि फिल्म की असली ताकत है वह सब कुछ दिखा सकती है चाहे वह साहित्य हो या
अन्य कोई विषय। पांडेय ने कहा कि हमारा सिनेमा न यूरोप से आया है न अमेरिका से आया
है हमारी अपनी मौलिक व अलग परिकल्पना और विचार है। उन्होंने हिंदी साहित्यकारों पर
आरोप लगाया कि उन्होंने फिल्मों के साथ नाइंसाफी की। इस सत्र में रविकांत और आजाद
भारती ने अपने विचार व्यक्त किए। इस अवसर पर सभागार में कुलपति विभूति नारायण राय, दिनेश कुमार शुक्ल, अजेय कुमार, पराग मांदले, प्रकाश त्रिपाठी, सुधीर सक्सेना, सूरज प्रकाश सहित
की विशेष उपस्थिति रही।
हिंदी विश्वविद्यालय
में नज़ीर हाट का उदघाटन
हिंदी समय
कार्यक्रम के तीसरे दिन रविवार को सायं एक सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया गया।
इस अवसर पर वरिष्ठ साहित्यकार से रा यात्री ने विश्वविद्यालय में नवनिर्मित नज़ीर
अकबराबादी हाट का उद्घाटन किया। इस हाट का नाम मशहूर शायर नजीर अकबराबादी के नाम
पर रखा गया है। कार्यक्रम की अध्यक्षता शेरजंग गर्ग ने की। इस अवसर पर मुख्य
अतिथि के रूप में कुलपति विभूति नारायण राय उपस्थित थे। साहित्य विद्यापीठ के अध्यक्ष
प्रो. के. के. सिंह के संचालन में एक सांस्कृतिक संध्या का आयोजन हुआ जिसमें विजय
किशोर मानव, अरविंद चतुर्वेद, मिथिलेश श्रीवास्तव, मुन्नी
गंधर्व, हरप्रीत कौर, अमरेंन्द्र कुमार शर्मा, अर्चना त्रिपाठी, हुस्न तबस्सुम
निहां, महेंद्र गगन, दिनेश कुमार शुक्ल,
उपेंद्र कुमार, अनुज लुगुन, विपिन चौधरी, बलराम गुमास्ता, राकेश श्रीमाल, शशिभूषण
सिंह, कुमार विरेन्द्र,सहित कई कवियों ने काव्य पाठ प्रस्तुत किया। इस अवसर पर
प्रह्लाद अग्रवाल दंपत्ति ने नजीर अकबराबादी की गजलों को गाकर प्रस्तुत किया।
भाषाई और सांस्कृतिक जकड़न से मुक्त हो नाटक
हम रंगमंच में
पुरानी संरचना को तोड़ नहीं पा रहे है। कापीराइट ओर निर्देशन में हस्तक्षेप के
कारण निदेशक की स्वतंत्रता खत्म हो रही है। नाटक भाषायी और सांस्कृतिक जकड़न
में फंस गया है। इस जकड़न से मुक्ति पाने के लिए मुख्यधारा के नाटकों की आवश्यकता
है। इस आशय के विचार विवि में नाटय कला एवं फिल्म अध्ययन विभाग के सहायक
प्रोफेसर डॉ. विधु खरे दास ने व्यक्त किये।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
में आयोजित हिंदी का दूसरा समय कार्यक्रम का चौथा दिन नाटकों पर समर्पित था। चौथा
दिन नाटक, प्रतिरोध का सिनेमा, मुख्यधारा का नाटक, प्रतिरोध का नाटक और हिंदी प्रदेश में ललितकला आदि विषयों पर समर्पित था। स्वामी
सहजानंद सरस्वती संग्रहालय में मुख्यधारा का नाटक विषय पर आयोजित सत्र में नाटय
लेखिका डॉ. कुसुम कुमार, विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर डॉ. विधु खरे दास आदि ने विचार रखे। सत्र
की अध्यक्षता साहित्यकार खगेंद्र ठाकुर ने की। डॉ. खरे ने आगे कहा कि प्रयोग
धर्मिता से ही रंगमंच बचा हुआ है। आज लेखक बड़ा या निदेशक इसपर जो बहस चल रही है
इससे रंगमंच को नुकसान हो रहा है। हिंदी रंगमंच कुछ ही स्थानों पर केंद्रित हुआ
है। जिससे उसका बहुआयामी विकास नहीं हो पा रहा है। रंगमंच के व्यापक विस्तार के
लिए हिंदी पट्टी में भी उसका प्रसार हो और ऐसा केवल नाटकों के विकेंद्रीकरण से ही
संभव हो पायेगा। महानगरों के साथ-साथ छोटे शहरों और गांवो, कस्बों में भी नाटक खेले जाने चाहिए।
डॉ. कुसुम कुमार ने अपने नाटय लेखन के
अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि बदलते समय में नाटकों का भी रूप रंग बदल रहा है।
हिंदी नाटकों के अभाव का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि हिंदी नाटकों का भंडार
हमारे पास उपलब्ध नहीं है। जिस की गूंज देश में हो ऐसे नाटक हमारे पास होने
चाहिए। उन्होंने कहा कि या तो नाटक लिखे कम जाते है और उसमें से भी खेले कम जाते
है। नाटय लेखन में पुरुषों का दबदबा बना हुआ है। परंतु कुछ महिला लेखिकाएं इस
परंपरा को तोड़ते हुए अपनी पहचान नाटय लेखन में बना रही है। इस क्रम में उन्होंने
उषा गांगुली, मीरा कांत, त्रिपुरारी शर्मा आदि का जिक्र किया। एक दर्जन से भी अधिक
नाटक लिखकर अडतीस वर्ष से भी ज्यादा नाटय लेखन की अनुभवी डॉ. कुसुम कुमार का
मानना था की मुख्यधारा के नाटकों में श्रमिक, मजदुर
और हाशिए के समाज का भी प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
अध्यक्षीय संबोधन में खगेंद्र ठाकुर ने कहा
कि नाटककार की स्वतंत्रता भी बरकरार रहनी चाहिए। यदि निर्देशक स्वतंत्रता चाहता
हैतो वह खुद भी नाटक लिख सकता है। उन्होंने यथार्थवादी नाटय लेखकों की परंपरा में
भारतेंदु, जयशंकर प्रसाद आदि का
जिक्र किया। सत्र का संचालन नाटय कला एवं फिल्म अध्ययन विभाग के डॉ. ओमप्रकाश
भारती ने किया। इस दौरान सुविख्यात लेखक विकास नारायण राय, डॉ. सतीश पावडे, डॉ. प्रीति सागर, डॉ. चित्रामाली, बी. एस. मिरगे सहित छात्र-छात्राएं तथा शोधार्थी प्रमुखता
से उपस्थित थे।
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