भाषाई और सांस्कृतिक जकड़न से मुक्त हो नाटक
हम रंगमंच में
पुरानी संरचना को तोड़ नहीं पा रहे है। कापीराइट ओर निर्देशन में हस्तक्षेप के
कारण निदेशक की स्वतंत्रता खत्म हो रही है। नाटक भाषायी और सांस्कृतिक जकड़न
में फंस गया है। इस जकड़न से मुक्ति पाने के लिए मुख्यधारा के नाटकों की आवश्यकता
है। इस आशय के विचार विवि में नाटय कला एवं फिल्म अध्ययन विभाग के सहायक
प्रोफेसर डॉ. विधु खरे दास ने व्यक्त किये।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
में आयोजित हिंदी का दूसरा समय कार्यक्रम का चौथा दिन नाटकों पर समर्पित था। चौथा
दिन नाटक, प्रतिरोध का सिनेमा, मुख्यधारा का नाटक, प्रतिरोध का नाटक और हिंदी प्रदेश में ललितकला आदि विषयों पर समर्पित था। स्वामी
सहजानंद सरस्वती संग्रहालय में मुख्यधारा का नाटक विषय पर आयोजित सत्र में नाटय
लेखिका डॉ. कुसुम कुमार, विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर डॉ. विधु खरे दास आदि ने विचार रखे। सत्र
की अध्यक्षता साहित्यकार खगेंद्र ठाकुर ने की। डॉ. खरे ने आगे कहा कि प्रयोग
धर्मिता से ही रंगमंच बचा हुआ है। आज लेखक बड़ा या निदेशक इसपर जो बहस चल रही है
इससे रंगमंच को नुकसान हो रहा है। हिंदी रंगमंच कुछ ही स्थानों पर केंद्रित हुआ
है। जिससे उसका बहुआयामी विकास नहीं हो पा रहा है। रंगमंच के व्यापक विस्तार के
लिए हिंदी पट्टी में भी उसका प्रसार हो और ऐसा केवल नाटकों के विकेंद्रीकरण से ही
संभव हो पायेगा। महानगरों के साथ-साथ छोटे शहरों और गांवो, कस्बों में भी नाटक खेले जाने चाहिए।
डॉ. कुसुम कुमार ने अपने नाटय लेखन के
अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि बदलते समय में नाटकों का भी रूप रंग बदल रहा है।
हिंदी नाटकों के अभाव का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि हिंदी नाटकों का भंडार
हमारे पास उपलब्ध नहीं है। जिस की गूंज देश में हो ऐसे नाटक हमारे पास होने
चाहिए। उन्होंने कहा कि या तो नाटक लिखे कम जाते है और उसमें से भी खेले कम जाते
है। नाटय लेखन में पुरुषों का दबदबा बना हुआ है। परंतु कुछ महिला लेखिकाएं इस
परंपरा को तोड़ते हुए अपनी पहचान नाटय लेखन में बना रही है। इस क्रम में उन्होंने
उषा गांगुली, मीरा कांत, त्रिपुरारी शर्मा आदि का जिक्र किया। एक दर्जन से भी अधिक
नाटक लिखकर अडतीस वर्ष से भी ज्यादा नाटय लेखन की अनुभवी डॉ. कुसुम कुमार का
मानना था की मुख्यधारा के नाटकों में श्रमिक, मजदुर
और हाशिए के समाज का भी प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
अध्यक्षीय संबोधन में खगेंद्र ठाकुर ने कहा
कि नाटककार की स्वतंत्रता भी बरकरार रहनी चाहिए। यदि निर्देशक स्वतंत्रता चाहता
हैतो वह खुद भी नाटक लिख सकता है। उन्होंने यथार्थवादी नाटय लेखकों की परंपरा में
भारतेंदु, जयशंकर प्रसाद आदि का
जिक्र किया। सत्र का संचालन नाटय कला एवं फिल्म अध्ययन विभाग के डॉ. ओमप्रकाश
भारती ने किया। इस दौरान सुविख्यात लेखक विकास नारायण राय, डॉ. सतीश पावडे, डॉ. प्रीति सागर, डॉ. चित्रामाली, बी. एस. मिरगे सहित छात्र-छात्राएं तथा शोधार्थी प्रमुखता
से उपस्थित थे।
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