स्त्री विमर्श भारत की ही देन – प्रो. के. एम. मालती
स्त्री विमर्श की शुरूआत पश्चिम से नहीं बल्कि
भारत में ही हुई है। यह विमर्श अब किसी प्रदेश विशेष में ही सीमित न रह कर देश के
सुदूर क्षेत्र में पहुंच गया है। उक्त विचार प्रो. के. एम. मालती ने व्यक्त
किये। वह महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में चल रहे हिंदी का दूसरा समय के दूसरे दिन शनिवार को स्त्री अस्मिता पर
महादेवी वर्मा कक्ष में आयोजित चर्चा में सत्र की अध्यक्षता कर रही थी।
चर्चा में सहभागिता करते हुए विश्वविद्यालय
के स्त्री अध्ययन की सहायक प्रोफेसर वासंती रमन ने कहा कि स्त्री की पहचान दूसरें
की पहचान के साथ जुड़ी होती है चाहे वह जाति से हों या धर्म से। स्त्री-अध्ययन और
महिला आंदोलन को जोड़ कर देखे तो उसके रास्ते और भी निकलेंगे। उन्होंने कहा कि
महिला प्रश्न महिला आंदोलन स्त्री अध्ययन समाज के जनमानवीयकरण के लिए
जरुरी है। इसी से हिंदी भाषाएं समाज एवं देश का विकास होगा। उन्होंने नामवर सिंह द्वारा स्त्री और दलितों
के विषय में दिये गये विचार का समर्थन किया।
सुधा सिंह ने अपने वक्तव्य में कहा कि
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में महिलाओं के लेखन की चर्चा नहीं है। इसमें हमें
यह भी याद रखना होगा कि गांधीजी के अहिंसा और सत्याग्रह आंदोलन में स्त्रियों का योगदान एक औजार की तरह था लेकिन 1950 के बाद स्त्रियों ने
दंगों का दंश भी झेला फिर आगे स्त्रियांघर की चारदीवारी में
बंध कर रह गई। स्त्रियों को पूरी तरह सशक्त
होने के लिए जनदबाव की आवश्यकता है। साथ ही उसे राजनीतिक संगठनों से जुड़ने की भी
आवश्यकता है।
“शिकंजे का दर्द” की लेखिका सुशीला टाकभौरे ने कहा कि स्त्रियों का
संरक्षण उसके लिए एक नियंत्रण की तरह है। दलित साहित्य के अस्तित्व पर बात करते
हुए उन्होंने कहा कि यह साहित्य सबसे पहले महाराष्ट्र में मराठी भाषा में आया। दलित स्त्री लेखन में चेतना और
उत्पीड़न की बात होती है। वह पूरी तरह से जागृत रहती है, जबकि गैर-दलित महिला लेखन में ऐसा नहीं
है। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि जिस धर्म में स्त्री की विड़ंबना होती है
उस असमानता के लेखन में परिवर्तन होना
चाहिए, साथ ही विरोध भी जरुरी है। समाज की
मानसिकता जातिवाद से नहीं बदली जा सकती बल्कि उन्हें खुद को बदलना होगा। अतंमें
उन्होंने अपने व्याख्यान में कहा कि ‘स्त्री स्वयं एक व्यक्ति है और वह जब
स्वयं निर्णय ले तभी वह सबल हो सकती है।’
सुप्रिया पाठक कहा कि स्त्री अध्ययन
पाठयक्रम महिलाओं को एक स्थान प्रदान करता है। जब तक सारे समाज को मिलाकर विचार
नहीं करेंगे तब तक कोई भी विमर्श सत्यापित नहीं हो सकता। जैसे हिंदी के
बीच से बोलियों को यदि निकाल दिया जाए भाषा ही नहीं बचेगी। उसी तरह स्त्री समाज की
हर हिस्से से जुड़ी हुई है।
सर्वेश
जैन ने दलित महिला के न्याय की बात कहीं। उन्होंने कहा कि स्त्रियों के सशक्तीकरण
के लिए पुरुषों की मानकिसता बदलने की जरुरत है।
इस दौरान छात्रों द्वारा उपस्थित किये गए
प्रश्नों का उत्तर मंचास्थ वक्ताओं ने दिया। कार्यक्रम का संचालन तथा धन्यवाद
ज्ञापन स्त्री अध्ययन विभाग के सहायक प्रोफेसर शरद जायसवाल ने किया।
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