आज पैसे के लिए बनती हैं फिल्में – मोहन
आगाशे
वर्धा दि. 4 फरवरी 2013: महात्मा गांधी
अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में आयोजित हिंदी का दूसरा समय कार्यक्रम के
चौथे दिन (सोमवार) मुख्यधारा का सिनेमा सत्र में अध्यक्षीय टिप्पणी करते हुए मोहन
आगाशे ने कहा कि पहले लोग फिल्में समाज के लिए बनाते थे आज पैसा के लिए बनाते हैं।
मुख्यधारा के सिनेमा ने भाषा की संप्रेषणीयता, संवेदनशीलता, बिंबों, एवं प्रतीकों का बड़ी खूबी से व्याख्यायित किया
है। पहले जब फिल्म ट्रेनिंग स्कूल नहीं थे तब भी अच्छी फिल्में बनती थीं और आज भी
बन रही हैं। उन्होंने कहा कि भारत में जहां अशिक्षा है वहां फिल्म मनोरंजन तो करती
है लेकिन उसकी बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी भी है।
हबीब
तनवीर सभागार में आयोजित कार्यक्रम का संचालन सूत्र संभालते हुए प्रो. सुरेश शर्मा ने विस्तार से विषय पर प्रकाश डाला
प्रख्यात कथाकार धीरेंद्र अस्थाना ने कहा कि सिनेमा कहानी के घर में लौट रहा है।
उन्होंने कहा कि जो रचेगा वही बचेगा यह कहानी पर ही नहीं बल्कि सिनेमा पर भी लागू
होता है। सांस्कृतिक पत्रकार अजित राय ने कहा कि सब फिल्में महान हैं, विलक्षण हैं और इतिहास में दर्ज हो रही हैं।
उन्होंने कहा कि मुंबईया सिनेमा जिस तरह देश को बरबाद कर रहा है वह देखते ही बनता
है। यहां नकलची फिल्मकार अधिक हैं। राय ने जोर देकर कहा कि १९८० के बाद हिंदी
सिनेमा में एक भी ढंग की फिल्म नहीं बनी है विशेषकर हिंदी सिनेमा में जिसकी चर्चा
की जा सके। सिनेमा चिंतक प्रहलाद अग्रवाल ने कहा कि मैं १९५५ से लगातार हिंदी
सिनेमा देख रहा हूं लेकिन कभी भी निराश नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि सिनेमा उस आदमी
का माध्यम है जो थका हुआ है और उसका मनोरंजन करना आसान काम नहीं है। कमलेश पांडेय
ने कहा कि फिल्म की असली ताकत है वह सब कुछ दिखा सकती है चाहे वह साहित्य हो या
अन्य कोई विषय। पांडेय ने कहा कि हमारा सिनेमा न यूरोप से आया है न अमेरिका से आया
है हमारी अपनी मौलिक व अलग परिकल्पना और विचार है। उन्होंने हिंदी साहित्यकारों पर
आरोप लगाया कि उन्होंने फिल्मों के साथ नाइंसाफी की। इस सत्र में रविकांत और आजाद
भारती ने अपने विचार व्यक्त किए। इस अवसर पर सभागार में कुलपति विभूति नारायण राय, दिनेश कुमार शुक्ल, अजेय कुमार, पराग मांदले, प्रकाश त्रिपाठी, सुधीर सक्सेना, सूरज प्रकाश सहित
की विशेष उपस्थिति रही।
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